Skip to main content

नेपाल में भारत विरोध का जवाबदेह स्वयं भारत

भारत के स्वघोषित ठेकेदारों जिनका अब सफाया हो चुका है यानि कांग्रेस उनके न जाने कितने ऐतिहासिक कुकृत्यों का परिणाम भारत कब तक भुगतता रहेगा। अपने व्यक्तिगत राग,द्वेष और प्रतिशोध के लिए इन लोगों ने बार-बार देश की गरिमा, सम्मान और देश के स्वाभिमान को दांव पर लगाया है और अतीत के किए सारे अपराध-कुकर्म घूम कर वापस समस्त देश के अपमान का कारण बन रहा है। पूरे नेपा...ल में मोदी की जीत पर खुशी की लहर भारत से कम नही थी, मोदी की नेपाल यात्रा नेपाल के पुराने घावों पर मरहम का काम कर रही है। भूतपूर्वप्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के समय इन्दिरा गांधी सहित, राजीव और सोनिया गांधी नेपाल यात्रा गए थे, उस समय मंदिर के नियमानुसार पशुपतिनाथ मंदिर में सोनिया गांधी को दर्शन हेतु प्रवेश नही करने दिया गया क्यूंकि वहां गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है और सोनिया गांधी हिन्दु तो दूर भारतीय भी नही हैं। इसके बाद इन्दिरा गांधी की हत्या की घटना के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही व्यक्तिगत द्वेष को अंजाम देने का समय आया तो राजीव गांधी ने संपूर्ण नेपाल से प्रतिशोध लेना आरंभ कर दिया, हांलाकि असली प्रतिशोध की बंदूक तो सोनिया गांधी के हाथ में थी कंधा अवश्य उनके पति राजीव का था। उसी समय भारत-नेपाल के मध्य पारगमन संधि का नवीनीकरण भी होना था जिसे जानबूझकर कई महीनों तक ठण्डे बस्ते में डाल कर रख दिया गया, इस कारण से नेपाल में डीज़ल, पेट्रोल, नमक आदि की भारी किल्लत हो गयी। पड़ोसी देश चीन के लिए इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था उसने तुरन्त अपनी सहायता नेपाल को बढ़ा दी, संभवतः चीन-नेपाल के मध्य चीनी फौजों को भारत की सीमा पर बिठाने का समझौता होने जा रहा था, तब घबराकर राजीव सरकार ने पारगमन संधि का नवीनीकरण किया लेकिन सोनिया गांधी के मन की गांठ अभी भी खुली नही थी, लिहाज़ा उन्होंने विश्व के एकमात्र संपूर्ण हिन्दू राष्ट्र को सेक्यूलर घोषित करवा दिया।
इन सब घटनाओं के बाद नेपाल से भारत आने वाले नेपाली नागरिकों के साथ भेदभाव और जबरन वसूली की घटनाएं आम हो चुकीं हैं। बाॅर्डर से लेकर रिक्शा, बस खाने पीने की वस्तुएं बेच रहे रेहड़ी वालों से लेकर प्रत्येक व्यक्ति हर नेपाली से 1 का 10 वसूलता है कभी मूर्ख बनाकर ठगता है कभी लूट कर ले जाता है। टेªन का टीटी उनसे सामान्य टिकट के अलावा सामान का भाड़ा अलग से वसूल ले जाता है। जो नेपाली भारत काम की खोज में आ जाते है उन्हें स्टेशन बस अड्डे के नज़दीकी होटलों में काम पर तो रख लिया जाता है परन्तु उनके साथ किया जाने वाला व्यवहार मानवता के नाम पर कलंक के सिवा और कुछ नही होता। गधों की तरह घंटों काम करवाना, कुत्तों से बदत्तर भोजन और पशुओं से भी बुरी जगहों पर रहने की व्यवस्था उस पर बिना गाली दिए मालिक की बात न शुरु होती है न खत्म। यदि वे घर जाना चाहें तो इन्हें पूरे पैसे भी नही दिए जाते, उल्टा इन्हें फुसलाकर और शादी का झांसा देकर इनकी बहन बेटियों को नेपाल से भारत लाकर उन्हें वेश्यावृत्ति के काम में फंसा दिया जाता है। हमारे इतने अमानवीय व्यवहार और इस प्रकार के स्वागत के बाद क्या हमें आशा करनी चाहिए कि नेपाल में भारत विरोध न हो।
भारतीय पुलिस से मदद मांगने पर भी इन्हें दुत्कार कर भगा दिया जाता है या उल्टा इन्हें ही किसी न किसी मामले में फंसाकर जेल में डाल दिया जाता है। आज से 25-30 वर्ष पूर्व भारत से नेपाल जाने पर वास्तविक ‘‘अतिथि देवोभवः’’ की भावना का अनुभव होता था, नेपाल के किसी घर में जाने पर हमारा सम्मान और अपनापन देखते बनता था। आज की इस विपरीत परिस्थितियों के लिए क्या हम स्वयं उत्तरदायी नही हैं। भारतीय सेना के सबसे वीर लड़ाकों की बात करें तो गोरखा और सिख रेजिमेन्ट का ही नाम पहले लिया जाता है बाकी सब उसके बाद... भारत-नेपाल सीमा पर ही हमारे देश के के तकरीबन 20 लाख वोटर हैं। आज नेपाल की जनता ही नही, आत्मग्लानि से भरी भारतीय जनता भी चाहती है कि नेपाल पुनः पूर्ण हिन्दु राष्ट्र बने, नेपाली भाषा को बोलने समझने वाले पुलिस वालों को भारत नेपाल की सीमा पर तैनात किया जाए। बाॅर्डर पर मुठ्ठी भर लोग ही ऐसे हैं जो सीमा पार से आने वाले नेपालियों के साथ इतने नीच प्रकार की बदमाशी करते हैं परन्तु भारत विरोध के रुप से समस्त राष्ट्र इसका परिणाम भुगत रहा है, ऐसे लोगों की खोज कर उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए जो सारे राष्ट्र को दुनिया के समक्ष अपमानित कर रहे हैं।

Comments

Popular posts from this blog

बंदूक अपने कंधों पर रख कर चलाना सीखिए...दूसरे के नही!

सही कहा मेरे एक फेसबुकिए मित्र ने कि ज़रूरत से ज़्यादा बेवकूफ और ज़रूरत से ज़्यादा समझदार लोगों में एक ही बुराई होती है, दोंनो ही किसी की नही सुनते। इधर खुद पर भी काफी हंसी आई जब लगातार एक मूर्ख को मैं धारा 370 के एक आलेख पर जवाब देती रही, मुझे एहसास हुआ कि मैं भी वही कर रही हूं जो ये मूर्ख कर रही है। उसने ध्यान से मेरे आलेख को पढ़ा ही नही था, उसे अपना सीमित ज्ञान हम सब तक पहुंचाना था और शायद इतना लिखना उसके बस में नही था तो उसने मुझे ही सीढ़ी बनाने की सोच ली। अचानक से आया किताबी और अधूरा ज्ञान कितना घातक होता है ये देख कर हंसी से ज़्यादा दहशत हुई, ऐसे ही अधूरे ज्ञान के साथ भारत की युवा पीढ़ी का भविष्य कहां जा रहा है??? इनकी भाषा और विरोध ने जाने अंजाने इन्हें देश के विरूद्ध कर दिया है, उम्र और युवावस्था की तेज़ी में भ्रष्ट बुद्धि के कुछ लोग आपको बिना समझे ही शिक्षा देने लगें तो एक बारगी तनिक कष्ट तो होता है फिर इन्हीं लोगों की बुद्धि और समझ पर दया भी आती है। उस बेचारी को जाने देते हैं क्यूंकि वो एक आधी अधूरी जानकारी और अतिरिक्त आत्मविश्वास का शिकार युवा थी, थोड़ा ऊपर उठ कर बात करते हैं क...

यहां केवल भूमिपूजन की बात हो रही है

भूमि पूजन कितना मनोरम शब्द, लगभग हर उस व्यक्ति के लिए जिसने अनगिनत अथक प्रयास और श्रम के पश्चात अपना खु़द का एक बसेरा बसाने की दिशा में सफलता का पहला कदम रखा हो। भीतपूजा, नींव की पहली ईंट और भी असंख्य शब्द हैं जिनका उपयोग इस शुभकार्य के पहले किया जाता है। जिस प्रकार विवाह के आयोजन से पूर्व अनगिनत असंतुष्टियां और विघ्न बाधाओं को पराजित करते हुए बेटी के पिता को अंततः कन्यादान करके सहस्त्रों पुण्यों को एक बार में फल प्राप्त हो जाता है वैसे ही  अपने और आने वाली सात पीढ़ियों के सिर पर छत देकर भूमि पूजने वाले पुरूष के भी दोनों लोक सफल हो जाते हैं। घर कितना बड़ा होगा इसका निर्णय प्रथमतः किया जाना कठिन होता है, क्यूंकि आरंभ में रहने वाले कभी दो तो कभी आठ हो सकते हैं किन्तु समय के साथ और ईश्वर की कृपा से हर आकार प्रकार के मकान में अनगिनत लोग समा जाते हैं, रहते हैं, जीवन बिताते हैं, फिर इसी प्रकार उनके बाद की पीढ़ी भी उसी में सहजता से समा जाती है। समस्या घर की छोटाई बड़ाई नही बल्कि समस्या जो सामने आती है वह यह कि भूमिपूजन में किस किस को और कितनों को बुलाएं? जिन्हें बुलाएंगे वो पूरी तरह शान्त और ...

कथा

नैना जब पैदा हुई, कोई उसे देखना नही चाहता था। गांव में माता का प्रकोप हो गया, हर कोई बीमार...नैना अपने साथ ये बीमारी लेकर आई है, ऐसा स्थानीय पुजारी का कहना था क्यूंकि नैना के नयनों का रंग हल्का था, मादक रंग। नैना को मंदिर सेवा में दान किया जाए तो गांव पर से महामारी का प्रकोप संभवतः कुछ कम हो जाएगा, पिता फौरन मान गए उन्हें तो वैसे भी कन्या अस्वीकार थी परन्तु मां...ने थोड़ा ज़्यादा समय लिया फिर मां...भी मान गई। नैना को पांच वर्ष की आयु में मंदिर मठ को दान दिया जाने का संकल्प लिया गया, जिससे गांव की समस्या भी स्वास्थ्य विभाग के अथक प्रयास से दूर हो गई और नैना के पिता के अथक प्रयास से नैना का छोटा भाई भी दुनिया में आ गया। घर की ड्योढ़ी पर कुत्ता भी आकर पड़ा रहे तो कुछ समय बाद उसकी भी चिन्ता होने लगती है और फिर नैना तो जीवित हंसती बोलती बच्ची थी। जैसे जैसे 3 साल की होने को आई उसके पिता का न जाने कैसे उससे प्रेम बढ़ने लगा...वो जो भी मांगती पिता ला देते और मां का कलेजा मुंह को आता जाता था। बेटा तो पा गया था छोटेलाल फिर क्यूं इस अभागी पर मोह बढ़ रहा था उसका जो और दो साल बाद अंजान हाथों विदा हो...