Skip to main content

कुछ इस तरह से कांग्रेस की नींव को दोबारा...


एक बार सूख कर खत्म हो चुके पेड़ से गिरे बीज को बोया गया, फिर जैसे ही अंकुर फूटा नया नया माली फल तोड़ने आ गया, फिर कुछ ने कहा कि तुम्हारे परिवार के दूसरे समझदार माली ऐसा कभी नही करते, थोड़ा सा और बढ़ने दो और लोग खा लेंगे, फिर भी जल्दी में अंकुर को ही खोद कर बड़े से गढ्ढे मे ंबो दिया गया। कुछ समय बाद पौधा बड़ा हुआ फिर से नया माली जो थोड़ा कम अक़्ल और कम अनुभवी था आ गया कि इस बार तो फल खाकर ही जाएंगे और फिर से कुछ ने कहा अरे थोड़ा और बढ़ने दो कुछ औरों को भी मिलता रहेगा लिहाज़ा पौधे को उखाड़ कर खेत मे ंबो दिया गया, रोज़ रोज़ उसमें खाद पानी दिया जाने लगा, और फिर एक दिन अचानक हाट बाज़ार लगने की ख़बर आई तो हड़बड़ी में पौधे पर दवाई और रसायनों का छिड़काव कर उसे जल्दी से बड़ा करने की होड़ लग गई। समय से पहले बड़ा हुआ पौधा और उसके फल वैसे तो किसी काम के न थे पर उन पर तेल पाॅलिश लगा कर और कुछ ब्राण्ड वगैरह की चिपकियां चिपका कर बाज़ार में भेज दिया गया, कसैले अधपके फलों को कुछ मूर्ख पका जान कर खरीद भी ले गए पर ज़्यादातर ग्राहक सयाने निकले थोड़े दागी और गले ही सही पर चमक छोड़ कर देशी फल ही खरीदे। कच्चे फल वक़्त से पहले तोड़े गए थे और अब पकने की भी कोई गंुजाईश नही थी लिहाज़ा एक पौधे की वक़्त से पहले पेड़ जैसे फल देने की कहानी यहीं ख़त्म हो गई। वक़्त और मौसम के साथ फिर से छोटे पौधे पर पत्तियां आने लगीं और इस बार पौधे को पेड़ बनने की बात पर सहमति हुई लिहाज़ा पुराने माली को ही दोबारा इसकी देखभाल पर लगा दिया गया, किन्तु इस बार पेड़ में कीड़े भी लग गए हैं और फल भी सावन के हैं जिनके भीतर मिठास कम और सड़े होने का ख़तरा ज़्यादा है फिर भी इंतज़ार है कि पेड़ या तो दोबारा फल दे या फिर सूख जाए और जाड़ों में तापने की लकड़ी ही दे। क्या फर्क पड़ता है हम दोबारा बीज बो देंगे अभी माली के परिवार से कुछ उम्मीदें बाकी हैं और कुछ इस तरह से कांग्रेस की नींव को दोबारा मज़बूती देने का प्रयास किया जा रहा है बस इस बार देखना है कि पुरानी मालिन इस पेड़ का क्या हश्र करती है ?

Comments

Popular posts from this blog

बंदूक अपने कंधों पर रख कर चलाना सीखिए...दूसरे के नही!

सही कहा मेरे एक फेसबुकिए मित्र ने कि ज़रूरत से ज़्यादा बेवकूफ और ज़रूरत से ज़्यादा समझदार लोगों में एक ही बुराई होती है, दोंनो ही किसी की नही सुनते। इधर खुद पर भी काफी हंसी आई जब लगातार एक मूर्ख को मैं धारा 370 के एक आलेख पर जवाब देती रही, मुझे एहसास हुआ कि मैं भी वही कर रही हूं जो ये मूर्ख कर रही है। उसने ध्यान से मेरे आलेख को पढ़ा ही नही था, उसे अपना सीमित ज्ञान हम सब तक पहुंचाना था और शायद इतना लिखना उसके बस में नही था तो उसने मुझे ही सीढ़ी बनाने की सोच ली। अचानक से आया किताबी और अधूरा ज्ञान कितना घातक होता है ये देख कर हंसी से ज़्यादा दहशत हुई, ऐसे ही अधूरे ज्ञान के साथ भारत की युवा पीढ़ी का भविष्य कहां जा रहा है??? इनकी भाषा और विरोध ने जाने अंजाने इन्हें देश के विरूद्ध कर दिया है, उम्र और युवावस्था की तेज़ी में भ्रष्ट बुद्धि के कुछ लोग आपको बिना समझे ही शिक्षा देने लगें तो एक बारगी तनिक कष्ट तो होता है फिर इन्हीं लोगों की बुद्धि और समझ पर दया भी आती है। उस बेचारी को जाने देते हैं क्यूंकि वो एक आधी अधूरी जानकारी और अतिरिक्त आत्मविश्वास का शिकार युवा थी, थोड़ा ऊपर उठ कर बात करते हैं क...

यहां केवल भूमिपूजन की बात हो रही है

भूमि पूजन कितना मनोरम शब्द, लगभग हर उस व्यक्ति के लिए जिसने अनगिनत अथक प्रयास और श्रम के पश्चात अपना खु़द का एक बसेरा बसाने की दिशा में सफलता का पहला कदम रखा हो। भीतपूजा, नींव की पहली ईंट और भी असंख्य शब्द हैं जिनका उपयोग इस शुभकार्य के पहले किया जाता है। जिस प्रकार विवाह के आयोजन से पूर्व अनगिनत असंतुष्टियां और विघ्न बाधाओं को पराजित करते हुए बेटी के पिता को अंततः कन्यादान करके सहस्त्रों पुण्यों को एक बार में फल प्राप्त हो जाता है वैसे ही  अपने और आने वाली सात पीढ़ियों के सिर पर छत देकर भूमि पूजने वाले पुरूष के भी दोनों लोक सफल हो जाते हैं। घर कितना बड़ा होगा इसका निर्णय प्रथमतः किया जाना कठिन होता है, क्यूंकि आरंभ में रहने वाले कभी दो तो कभी आठ हो सकते हैं किन्तु समय के साथ और ईश्वर की कृपा से हर आकार प्रकार के मकान में अनगिनत लोग समा जाते हैं, रहते हैं, जीवन बिताते हैं, फिर इसी प्रकार उनके बाद की पीढ़ी भी उसी में सहजता से समा जाती है। समस्या घर की छोटाई बड़ाई नही बल्कि समस्या जो सामने आती है वह यह कि भूमिपूजन में किस किस को और कितनों को बुलाएं? जिन्हें बुलाएंगे वो पूरी तरह शान्त और ...

कथा

नैना जब पैदा हुई, कोई उसे देखना नही चाहता था। गांव में माता का प्रकोप हो गया, हर कोई बीमार...नैना अपने साथ ये बीमारी लेकर आई है, ऐसा स्थानीय पुजारी का कहना था क्यूंकि नैना के नयनों का रंग हल्का था, मादक रंग। नैना को मंदिर सेवा में दान किया जाए तो गांव पर से महामारी का प्रकोप संभवतः कुछ कम हो जाएगा, पिता फौरन मान गए उन्हें तो वैसे भी कन्या अस्वीकार थी परन्तु मां...ने थोड़ा ज़्यादा समय लिया फिर मां...भी मान गई। नैना को पांच वर्ष की आयु में मंदिर मठ को दान दिया जाने का संकल्प लिया गया, जिससे गांव की समस्या भी स्वास्थ्य विभाग के अथक प्रयास से दूर हो गई और नैना के पिता के अथक प्रयास से नैना का छोटा भाई भी दुनिया में आ गया। घर की ड्योढ़ी पर कुत्ता भी आकर पड़ा रहे तो कुछ समय बाद उसकी भी चिन्ता होने लगती है और फिर नैना तो जीवित हंसती बोलती बच्ची थी। जैसे जैसे 3 साल की होने को आई उसके पिता का न जाने कैसे उससे प्रेम बढ़ने लगा...वो जो भी मांगती पिता ला देते और मां का कलेजा मुंह को आता जाता था। बेटा तो पा गया था छोटेलाल फिर क्यूं इस अभागी पर मोह बढ़ रहा था उसका जो और दो साल बाद अंजान हाथों विदा हो...