सिनेमा के पहले रंगमंच के ज़रिए ही मानवीय भावनाओं का प्रदर्षन किया जाता था। शुरूआती दौर में नाटकों में भी सिनेमा की तरह पुरूष ही स्त्री पात्रों के रूप में भावाभिव्यक्ति करते थे। इसे देखकर कलाकार के कला की सराहना तो की जाती थी परन्तु अन्ततः एक अधूरापन और असंतोष सा मन में घर किए रहता था। एक समय बाद जब स्त्रियां भी रंगमंच पर उतरीं तो मानो नाटकों या नृत्यनाटकों में प्राण का संचार हो गया। यह तो होना ही था पुरूष की जिजीविषा जो अब उसके साथ थी। बंगाल का ‘न्यू थियेटर्स ञ उन दिनों नाट्य कला के क्षेत्र में सर्वाधिक सम्मानित स्थान पर था और गिरीषचन्द्र घोष जैसे नाटककार ने पहली बार अपने नाटकों में स्त्री का समावेष किया। ठाकुर गिरीषचन्द्र के नाटक देखने के लिए दक्षिणेष्वर से कोलकाता जाया करते थे और उन्होंने रंगमंच की प्रख्यात नायिका नोटी विनोदिनी के अभिनय की बड़े उदार मन से सराहना भी की थी। ठाकुर का मानना था कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री का एक महत्वपूर्ण स्थान एवं पृष्ठभूमि होती है जिसे उन्होंने अपने जीवन में मां शारदा के साथ निभाया। ...मुश्किल ये थी कि फिल्मों में नारी प्रवेश एक लम्बे समय
ऋतु कृष्णा चटर्जी/ Ritu Krishna Chatterjee