कुत्तों पर नही लागू होता सरकारी कानून। कुत्ते हैं तो क्या हुआ? बिना बात के ही काट खाते है तो भी क्या? ये काम तो सरकार की नौकरशाही भी करती है,फिर भी ऐसी फौज के रहते पुलिस महकमें को आम जनता पर छोड़ दिया गया है। बहरहाल यहां हम कुत्तों की समस्या पर चिन्ता व्यक्त कर रहे थे...कि कुत्तों से इतना भेदभाव क्यूं? विदेशी हैं तो खाने को विदेशी खाना, सोने को बिस्तर, खेलने को गेंद, नहाने को शैम्पू-साबुन, गर्मियों में ए.सी.-पंखे का सुख और जाड़ों में पहनने को गर्म कपड़े मानो कुत्ते न हुए नौकरशाह अफसर हो गए और हमारे देशी कटखन्नों का क्या? उन्हें तो दलितों जितना सुख भी नसीब नही। यदि मनुष्यों में एस.सी.एस.टी हो सकता है तो कुत्तों में क्यूं नही हो सकता। मनुष्यों के घरों में 10 बच्चे हो सकते हैं और विदेशी कुत्तों से बच्चे पैदा करवाने के लिए हजारों रुपए खर्चे जाते हैं तो फिर उनके देशी भाइयों की बिना पूछे नसबन्दी क्यूं करवा दी जाती है जबकि इन्सान को इस काम के भी पैसे मिलते हैं। सबसे अधिक दुःख तो तब होता है जब सरकार द्वारा योजनाओं की घोषणा होती है और उनमें कुत्तों के लिए कुछ नही होता। चलो आजतक न सोचा न सही पर कम से कम आने वाली योजनाओं में तो कुछ होना ही चाहिए।
समस्याग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने गए जिलाधिकारी (डीएम) को देखकर जिस प्रकार क्षेत्रवासी अपनी व्यथा कहते हैं वहीं मौजूद क्षेत्रीय कुत्ते भी भौंक-भौंक कर अपनी बात रखने का प्रयास करते हैं पर आस-पास मौजूद अर्दली उन्हें भगा देते हैं क्यूंकि सरकार अल्पसंख्यकों की है और कुत्तों के पास अपनी जाति का प्रमाण पत्र नही होता जिससे वे बता सकें कि वे भी जातिवाद के कष्ट से गुजर रहे हैं, तो क्या कुत्तों की अलग सरकार बनाई जाए?
बात गले से नीचे नही उतर रही होगी पर जरा हृदय के साथ सोचिए बेहिसाब लात जूतों के बाद भी शहर के अनगिनत गली मुहल्लों में इन्हीं कटखन्नों के कारण लाखों लोग चैन की नींद सोते हैं लोेग जानते हैं कि इनके शक के दायरे में आनेवाले व्यक्ति का सही सलामत वापस लौटना असंभव है। ये वैसे चैकीदार नही हैं जो पैसे की कमी के चलते चोरों से कमीशन बंधवा कर अपने ही मालिक का घर लुटवा देंगे। जो काम पुलिस पैसे लेकर रिर्पोट दर्ज करने के बाद भी नही करती वो काम ये बेचारे एक बासी रोटी लेकर भी कर देते हैं न भी मिले तो भी करते हैं। हम चैन से सोते हैं और ये फालतू के जिम्मेदार पूरी रात गला फाड़-फाड़ कर असामाजिक तत्वों को हमसे दूर रखते हैं और इन्हीं बेचारों के सामने हम विदेशी कुत्तों को बड़े वी.आई.पी अन्दाज में घुमाने टहलाने ले जाते हैं उस समय ये भौंक कर पूछते हैं ‘‘इसमें ऐसा क्या है जो मुझमें नही’’। देखा जाए तो महंगे विदेशी कुत्ते मालिक की हिफाजत नही करते बल्की मालिक इनकी हिफाजत करता है। बाहर छोड़ा नही कि ये नालायक अपहरण कर लिए जाते हैं हजारों रूपए देकर खरीदे गए इन नवाबजादों को ड्राइंगरुम में सुरक्षित रखा जाता है और ज्यादातर मालिक बाहर निकल कर देखते हैं कि आगंतुक उनके इस हजारों की लगात का शत्रु है या मित्र। इनमें से अधिकतर तो देखने में डरावने होते हैं जबकि वास्तविकता ये है कि अजनबियों और आवारा देशी भाइयों पर भौंकने के पहले ये पीछे पलट कर देख लेते हैं कि बात ज्यादा बिगड़ने की स्थिति में इनका मालिक इनकी रक्षा को पीछे मौजूद है या नही। हैं। इनमें भेदभाव की भावना भरी मानव ने ही उत्पन्न की है स्वदेशी दुमवालों के रहते विदेशी झबरीलों को गोद में बैठाकर देशी श्वानजाति का अपमान करने का अधिकार हमें किसने दिया? अब तो इन विदेशी कुत्तों को रखने का लाईसेन्स भी बनवाना होगा लो कर लो बात जैसे हम इन्हें शरण देकर इनपे एहसान नही कर रहे बल्कि ये हमारे घर में रहकर हम पर कृपा कर रहे हों। इस कानून को जानकर तो देशी दुमवाले हंस-हंस कर लोट पोट हो गए होंगे कि अब लो मजा इन महंगे विदेशी छिछोरों को पालने का, हम सस्ते थे तो क्या बुरे थे? स्वदेशी माल की बिक्री और इस्तेमाल पर जोर देने वाली कम्पनियां देशी कुत्तों के बारे में कुछ नही कहतीं। यहां तक की बाबा रामदेव जो कोक-पेप्सी वालों के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं और लस्सी छाछ पीने की बात पर जोर देते हैं वे भी स्वदेशी कुत्तों के लिए कुछ नही कहते। सुबह की सैर पर जाने वालों का मानना है कि ये आवारा उन्हें चैन से टहलने व्यायाम नही करने देते जबकि सच्चाई तो ये है कि सुबह-सुबह धीमी, निढाल और आलस भरी चाल चलने वालों पर ये पूंछवाले गुर्राकर समझाने का प्रयास करते हैं कि स्वस्थ्य रहना है तो हमारी दुम के पीछे चलने के बजाय दो टांगों पर हम चार टांगोंवालो से तेज भागना सीखो तभी तो देश स्वस्थ्य बनेगा। एक तरह से तो ये देशवासियों को स्वस्थ्य बनाने की मुहीम ही चला रहे हैं जो बाबा रामदेव से कहीं बेहतर है। खाने-पीने की जगहों पर इनका जमावड़ा हर व्यक्ति को गुस्सा दिलाता है पर जरा गौर फरमाईये कि आपको खाता देखकर ये कितने खुश होते हैं। ये फेंके हुए अन्न को खाकर बताते हैं कि देश में खाद्यान्न की समस्या चल रही है यदि स्वयं न खा सको तो फेंककर नष्ट न करो भूखों को खिला दो किसी का पेट तो भरेगा। हम मनुष्यों में ऐसे लोग हैं जो थाली में भोजन छोड़ने को रईसी कहते हैं इसी थोड़े-थोड़े भोजन को एकत्रित कर लें तो सौ थालियों में फेंके गए अन्न को इकठठा करने पर कम से कम 50 लोगों का पेट भर जाएगा। अन्न नष्ट करना पाप है ये तो हमारे ही शास्त्रों में लिखा है पर हमें याद नही रहता...हमारे श्वानबंधु हमें समय-समय पर शास्त्रों की याद भी दिलाते रहते हैं।
इतने भेदभाव के बाद भी ये मनुष्यों से दोस्ती रखने में विश्वास रखते हैं, इन्हें अभी भी आशा है कि कभी न कभी मानव इनके उद्धार के बारे में भी सोचेगा। जब ये कूड़े के ढेर पर किसी मनुष्य के बच्चे को पड़ा हुआ देखते हैं तो इनके मन में हम मानवों के प्रति कैसा भाव उठता होगा कहना मुश्किल है,संभवतः उन्हें हम मनुष्यों के स्वभाव का अन्दाजा होता होगा कि कुत्तों पर गाड़ी चढ़ाकर गुजर जाने वाले इस दो पैर के जीव के लिए जीवन का कोई मोल नही जिस जाति को अपनी संन्तानों से प्रेम नही भला हम श्वानों के प्रति उसके हृदय में क्या प्रेम होगा? कुत्तों में तो लिंगभेद या भ्रूण हत्या जैसी चीज की कोई जगह ही नही होती।
दीवारों पर पेशाब करते देखकर इन्हें अन्दाजा हो जाता होगाा कि हम इन्सान श्वानों से कुछ ज्यादा अलग नही हैं। फर्क तो ये है कि श्वान की लघुशंका भी गाड़ी के टायर या उन खम्भों को साफ करने के काम आती है जिन खम्भों को नगर निगम वाले जंग खाकर सड़ जाने तक पलट कर नही देखते जबतक कोई दुर्घटना न घट जाए, वहीं मनुष्य सुलभ शौचालयों की उचित व्यवस्था के रहते भी दीवारों को खराब कर अपना स्तर सड़कछाप बनाता जा रहा है। कुत्ते पान नही खाते, सिगरेट नही पीते,तम्बाकू नही खाते, शराब नही पीते बल्कि शराब पीकर सड़क पर पड़े अपने मनुष्य भाई का चेहरा चाट कर उसे घर वापस अपने परिवार के पास जाने की याद दिला देते हैं, गाड़ी नही चलाते तो देश में तेल की बेहिसाब खपत के भी जिम्मेदार ये श्वानबंधु नही हैं। संभवतः इस आलेख को पढ़ते-पढ़ते महसूस होने लगा होगा कि हम आजाद होकर भी इन आवारा कुत्तों से भी बदतर जीवन जी रहे हैं और ये श्वान मनुष्यों पर निर्भर होकर भी हमसे बेहतर जीवन का निर्वाह कर रहे हैं। पढ़ने वाले इसे पढ़कर व्यक्तिगत न लें कि उनकी तुलना कूकुर से कर दी गई ऐसा भला कैसे किया जा सकता है?...हम मनुष्यों के पास तो अब दुम भी नही रही और साथ ही अफवाहें और अशान्ति फैलाने के लिए उपरवाले ने गजभर लम्बी जुबान भी दे डाली है। दांतों से काटना नही पड़ता मार पीट के लिए लम्बे हाथ और टांगें भी तो हैं साथ ही कपट जाल बिछाने के लिए कमाल की बुद्धि भी मिल गई है।
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