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Showing posts from April 19, 2015

स्पष्ट हूं कि प्रेम ही करती हूं

एक रेशम के कीड़े की लार से भी महीन अंतर होता है उन दोनों में जिसमें से पहला प्रेम है और दूसरा मोह। उसे हम लोग प्रेम कहते हैं जिसे बांटो या न बांटो जहां भी होता है दिन ब दिन बढ़ता ही जाता है, पहले वो प्यार सिर्फ अपने खिलौनों किताबों कपड़ों खाने पीने और सोने तक ही सीमित था...फिर सीमा बढ़ी प्यार मां बाप दोस्तों संबंधियों घर के सभी सदस्यों तक आ गया, फिर और बढ़ा घर बाहर के लोगों से भी जा के जुड़ा...और फिर दिल ने पिघलना भी सीख लिया। प्यार के लिए क्या चाहिए? शरीर नही...दो अलग अलग लोग...नही? फिर कुछ ख़ास तरह के लोग...न नही? कोई शर्त नही? फिर कैसे हो प्रेम? मैं बताती हूं इस बिन बुलाए मेहमान की कारिस्तानियां... ये चुपचाप आपके कानों में रात दिन फुसफुसाता रहता है...दिल के धड़कने के साथ ही साथ ये दिल को पुराने सामान जमा रखने का पिटारा बना देता है...कि साफ करना भी असंभव हो जाए। दिल का यही बंद पिटारा मोह के अंधेरे में डूबने लगता है, प्रेम की उजाले से भरी खिड़कियों पर भावुकता का सांकल चढ़ जाता है। सबसे बड़ी शैतान इस प्रेम की सहेली ये दो आंखें जो सामने वाले को तो देख पाती हैं, पर खुद को भूल जाती हैं सामने वाले

प्रेमस्त्रोत ही शांतिस्त्रोत बनेगा

झक सफेद कनात के नीचे बार बार टकराती तितलियों को मैं बड़े ध्यान से देख रही थी...या तो रोशनी के आकर्षण से वो मोहित थीं या फिर इस नई छत से थोड़ा उलझन में होंगी...सारा स्कूल प्रांगण दमकने लगा था छन कर आती धूप की खीज भी कुछ कम नही थी, पर आज मुझे तनिक भी गर्मी नही महसूस हुई. हरि ओम तत्सत् का मधुर गुंजार बच्चों का उत्साह से भरपूर स्वरमिश्रण जिसे अब शोर नही कहा जा सकता था आख़िर बीते १५ दिनों का प्रतिफल आज सामने आने ही वाला था. वह परिश्रम, वह समर्पण, वही उत्साह यद्यपि यह सब मेरे भीतर उन नन्हे बच्चों से ४ गुना ज़्यादा था फिर भी इस सबका आनंद हज़ार गुना अधिक महसूस हो रहा था, ११ से १२ बजे फिर १-२-३ और एक पल में कार्यक्रम आरंभ हो चुका था...मैं बोल रही थी लोग सुन रहे थे और बच्चे तैयार मंच पर आने को...वे आए और फिर वह अद्भुत प्रदर्शन जो मेरी आशा से बढ़कर निकला. उन सभी बच्चों को उनके समस्त जीवन के लिए जाने कितना प्रेम कितना आशिर्वाद मैं दे आई यह तो अब मुझे भी याद नही बस एक चमत्कार यही हुआ कि सारथी मेरे भीतर बैठ के हंसते रहे और मुझे किंचित मात्र भी न व्याकुल होने दिया न रोने दिया. इस बार वो मुरली वाल

इतिहास स्वयं को दोहराता है

सच है कि इतिहास स्वयं को दोहराता है पर अपने साथ इतने चमत्कृत कर देने वाले अनुभवों का भण्डार भी लेकर आता है इसका अनुभव मुझे अब हुआ...कितना संभल गई थी मैं कितना नपा तुला जीवन हो चला था, ऐसा लगा मानों आंधी मेरे आस पास का समस्त खोल उड़ा ले गई... स्वयं पर सभी का इतना विश्वास जानकर ये कछुआ अब बाहर निकल आया है! पर इसकी गति नही बदलेगी. हां! चुपचाप छुपने की प्रवृत्ति संभवत: परिवर्तित हो जाए, कब तक के लिए ऐसा होगा कहना मुश्किल है पर कुछ समय तक तो रहेगा. समाज के प्रति दायित्व निर्वहन से बड़ी ज़िम्मेदारियां ईश्वर मुझे सौंप गया है और निभाने की शक्ति भी देता जा रहा है...इसे भली भांति निभा सकी तो स्वयं को कृतार्थ समझूंगी

यहीं से वापसी करती हूं

अभी सुबह सुबह ही ऐसा लगा मानो...स्वार्थ मुझपर हावी होने का प्रयास कर रहा हो, उधर अख़बारों में किसानों के आंसू देखकर आज ह्रदय तनिक भी विचलित नही हुआ? क्या हो गया मुझे...नयन कोर तो भीग ही जाते थे किसी के भी आंसू देख...फिर याद आया कि इन दिनों मैं दोबारा कस्तूरी मृग सी ख़ुशियां खोजने को दौड़ में शामिल हो गई हूं, एक पल भर की ह्रदयतुष्टि देने वाली भावना मेरे सहज भावुक ह्रदय को दीमक बन कर चाट रही है. मैं केवल मैं मेरी प्रसन्नता, मेरी आवश्यकता...ये तो कुछ ठीक नही मालूम देता. मुझे वापसी करनी ही होगी यथार्थ में , असंभव कल्पना के पीछे दौड़ना मेरी शक्ति को खा रहा है. कल्पना यदि प्रेरणा दे तो ठीक, यदि प्रेरणा भी आपको मात्र प्रेरित करे तो ठीक, यदि कल्पना शक्ति ही कमज़ोरी बन जाए तो ऐसी शक्ति से विरक्ति ही अच्छी...प्रेम मूर्खता की श्रेणी में आने के पहले ही रास्ता बदल ले तो कई दुर्घटनाएं होने से बच जाती हैं तो मैं यहीं से वापसी करती हूं ये मान कर कि जो ईश्वर ने ही तय कर के आपके सामने रख दिया उसे आप कितना भी प्रयास कर लें परिवर्तित नही कर सकेंगे...

मुक्ति तो तब ही है

अत्यन्त अद्भुत है जीवन, लगता है कि बीत गया... पर ऐसा होता नही, समय बार बार स्वयं को दोहराता है. हमे लगता है कि कुछ नया घट रहा हो जैसे परन्तु कुछ भी नया नही हो रहा ... चेहरे वही, भावनाएं वही, केवल समय ही कुछ फेरे लेता है. सप्तपदी सा...दिए वचन जो अग्नि के सामने देकर जीवन भर भूलते फिर दोहराते जोड़ों जैसा. कुछ संबंध हैं पूर्व जन्मों के तो कुछ कर्म हैं वर्तमान के...फिर फिर वहीं लाके खड़ा कर देता है जिससे बच कर हम मुक्त हो जाने का दावा करते हैं क्या है मुक्ति मृत्यु है क्या? नही नही ये तो फिर उसी फेर मे पड़ने की तैयारी है...मुक्ति तो तब ही है जब मन, प्राण और शरीर यह मान ले कि सभी वचन जो दिए थे पूर्ण हुए.