जब आपका कोई शत्रु न हो अथवा आप किसी का विरोध न कर रहे हों अथवा जबरन किसी के खिलाफ होकर उसका अपमान करने की योजना न बना रहे हों तो अचानक से लिखने के विषय ख़त्म होने लगते हैं। फिर जान समझ कर किसी न किसी के लिए मन में क्रोध जगाना पड़ता है, फिर वो क्रोध राजनीति से जुड़ा हो, फिल्म जगत से, खेल जगत से अथवा किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति पर हो बस क्रोध आना भर चाहिए कि अचानक आपको निन्दा करने के नाम पर पचास पन्नों का मसाला मिल जाता है, जहां प्रशंसा के नाम पर आप एक शब्द नही खोज पा रहे थे। कभी सोचा आपने कि ऐसा क्यूं? सोचिएगा तो अपने कारण मुझसे बांटिएगा ज़रूर... अच्छा कहने, प्रशंसा करने लिखने में हमारी जीभ को काफी लचीला होना पड़ता है वहीं बुराई या निन्दा करने बोलने या लिखने में दिमाग को अधिक मशक्कत नही करनी पड़ती। अब आप इसे स्वीकार कीजिए या नही किन्तु सत्य तो कटु ही होता है, आपको इसका स्वाद भाए या न भाए। अब मेरे ही इस लेख को ले लीजिए इतनी देर से आपकी निन्दा किए जा रही हूं और आप इसे पढ़ कर मेरी हां में हां मिलाएंगे साथ ही टिप्पणियां भी करेंगे क्यूंकि आपको लगेगा यहां आपकी नही किसी और की बात हो रही है। अब स्वयं
ऋतु कृष्णा चटर्जी/ Ritu Krishna Chatterjee