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Showing posts from July 19, 2015

लखनऊ खामोश ही रहता है

वक़्त बेवक़्त बड़ी सी जम्हाई लेना मुझे बेहद पसंद है और सुबह शाम की एक प्याली चाय हल्की मीठी तेज़ पत्ती की अगर 4-5 बजे के दौरान मिल जाए तो चुस्की से चूकने का सवाल ही नही, बिना वजह किसी के साथ बैठकर पुरानी बीती बातों पे बहस करना तो अव्वल किस्म का शौक़ मानती हूं। कितना भी खाने पीने पर काबू रखने की सोचूं, चौक़ पास से गुज़रने पर नाक सारे बंधन तोड़कर पेट को इशारे करने लगता है कि फौरन ज़बान को खबर कर दे कि श्री की लस्सी, छोले भटूरे, अवध बिरियानी कॉर्नर, या कवाब परांठे की दुकान दांयी तरफ ही है। अब ऐसे में किसे परवाह है कि साहब दिल्ली वाली जीन्स और मुम्बई वाली टी-शर्ट टाईट हो गया तो क्या पहनेंगे? अरे चिकन के ढीले कुर्ते और सलवार पहन लेंगे, उसमें भी कम रौब नही पड़ता! मुझे अकसर लखनऊ छोड़कर बड़े शहरों में जा बसे बेचारे दोस्तों की बातों को सुनना पड़ता है, बेचारे अपनी मिटटी से दूर होकर इसक़दर टूट गए हैं कि उनका हाल, ‘‘लोमड़ी के खटटे अंगूरों’’ की कहानी सा हो चला है। जब यहां रहने की खुशनसीबी ज़िन्दगी की ज़रूरतों में उलझकर बड़े शहरों के पहिये में पिस कर रह गया तो भलाई इसी में कि जो मिला उसे ही