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Showing posts from December 28, 2014

जो दिखता नही वो होता भी नही क्या?

मैंने ईश्वर को नही देखा, मैंने भूत नही देखे, हवा नही देखी और तो और घण्टों योग-ध्यान के पश्चात् भी मुझे अपनी आत्मा के दर्शन नही हुए, दूसरे तो छोड़िए मैंने तो अपनी पृथ्वी को भी नही देखा कि वो गोल है या चैकोर? परन्तु मुझे विश्वास है कि ये सब हैं ही क्यूंकि बाकी लोग बड़े दावे के साथ ऐसी ही कहते हैं। मतलब वे अप्रत्यक्ष रूप से इस बात को भी स्वीकार कर रहे हैं कि यदि कोई वस्तु व्यक्ति या घटना आंखों देखी न हो तो इसका मतलब ये नही कि वो है नही या घटित नही हुई। गुस्सा दिखे नही तो अंदाज़ा न लगाईए कि है नही, खुशी दिखे नही तो भी मत सोच लीजिए कि है नही, दुःख, द्वेष, स्वार्थ और प्रेम का भी यही हाल है, भावनाएं दिखती नही पर होती हैं। इसके ठीक उलट भावुकता स्पष्ट दिखती है जबकि वास्तविकता में वो होती ही नही जो होती तो स्थिर होती, स्वार्थ दिखता नही पर होता है क्यूंकि स्वार्थ ही सहसा भावनाओं और भावुकता दोनों को खा जाता है। झूठ होता नही पर लोग मान लेते हैं, सत्य होता है पर लोग मानते नही। सीधी सी बात है कि उसकी बनाई दुनिया में जो है उसे अकसर हम समझते हैं कि नही है और जो नही है उसे कहते हैं कि है... अब इसमें

फिल्म को हाॅल के भीतर छोड़ आईए

एक कोई बात किसी भी कम्बल या रज़ाई से ज़्यादा गर्म होती है इतना तो मानेंगे न आप ? उदाहरण के लिए किसी भी मुद्दे की गर्मी देखिए ज़रा...हर हाथ उसे सेंकने को तैयार हो जाता है। जो मुद्दे का हिस्सा हैं उनके शरीर के हर हिस्से से पसीना टपक रहा होता है, और पारा है जो 2 डिग्री के नीचे गिरता जाता है। विवाद अदरक की चाय से ज़्यादा असरदार होता है जो हर ज़बान को गर्म रखता है और दिमाग को उबाल पर रखता है, भले ही बहस करने वालों के दिल बर्फ से ज़्यादा ठण्डे हों। किसी भी विषय को एक क्षण में राष्ट्री य स्तर पर उछालना और दो कौड़ी के लोगों को सस्ता प्रचार दिलाने की बेवकूफी करने वालों को अब क्या कहा जाए। किसी भी फिल्म की औकात उस फिल्म के एक शो के टिकट से ज़्यादा नही होनी चाहिए, आपने फिल्म देखी हाॅल से निकले और टिकट को कूड़ेदान के हवाले कर दिया न कि बाकी की सारी ज़िन्दगी उसी फिल्म के ऊपर ही बिताने की शपथ खा ली। जब हम फिल्मों पर जीवन नही बिताते तो उसे ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत देने वाले काम क्यूं करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं फिल्में सिर्फ टाईम पास का ज़रिया होती हैं, उनसे हमारी कोई भी ज़रूरत पूरी नही होती। अगर ज़रूर