थोड़ा बुरा महसूस होगा, शायद शर्म भी आ जाए या लगेगा इन लिखने वालों को और कोई काम नही जहां देखो किसी न किसी बात का बतंगड़ बना देते हैं पर मैं करुं भी क्या...? मुझे ईष्वर में आस्था है और मेरे लिए ईष्वर सिर्फ पत्थर का बना ‘डेकोरेषन पीस’ न होकर जीवन्त अनुभूति है। मैंने सुना है कि एक विषेष समय तक पूजा पाठ करते रहने पर किसी भी मूर्ति या उससे जुड़ी वस्तु में प्राण आ जाते हैं, बिल्कुल किसी रिष्ते की तरह जब हम साल दर साल रिष्ते निभाते जाते हैं और एक दिन ऐसा आता है कि उस इन्सान के बिना हमारी जिन्दगी अधूरी लगने लगती है। किसी का बुरा नही मनाती पर कहीं उस इन्सान का प्रत्यक्ष शरीर किसी कारण से क्षतिग्रस्त हो जाए जैसे बीमारी हो जाए या हाथ पांव न रहे या चेहरा विकृत हो जाए तो क्या रिष्ता खत्म हो जाता है या हम उसे घर से निकाल कर सड़क पर तो मरने नही छोड़ देते...आप सोचेंगे ये सब बेतुकी बातें लिख कर प्रवचन का सूत्रपात कर रही हूं पर ऐसा नही है। कुछ दिनों पहले की बात है, कालोनी के भीतर से पैदल टहलते हुए आ रही थी कि एकाएक ईश्वर के दर्शन हो गए। हर्षानुभूति की अथवा उद्वेलित होने की कोई आवश्यकता नही, ये दिव्य दर
ऋतु कृष्णा चटर्जी/ Ritu Krishna Chatterjee