जिन नेताओं, समाज सेवकों कलाकारों और विभूतियों के नाम से हमें नकली ट्वीट और बयान सोशल पटल पर देखने को मिलते हैं, अधिकतर हम उनके वास्तविक होने पर ध्यान ही नही देते। क्या ये एक प्रकार का मानसिक रोग नही है? तो क्या हम रोगी हैं? करोना न सही, सोशल मीडिया ही सही, उद्देश्य तो अपंग बनाने से है, हाथ पैर के साथ साथ मस्तिष्क को भी। क्या आपको कभी कभी यह महसूस नही होता कि आप बिना सोशल मीडिया पर दो चार बेसिर पैर के कमेंट किए अपना दिन बिता सकते हैं? लेकिन नही इन दिनों आप ऐसा सोच भी नही सकते। हम सोशल मीडिया पर ही मौलाना साद को खोजने लगते हैं, हम सोशल मीडिया पर ही विकास दूबे के ब्राहमण होने या अपराधी होने के विषय पर निरर्थक विवाद में उलझे रहते हैं। लाॅक डाउन सही था या ग़लत, और लाॅक डाउन को मानने या न मानने वाले दोनों ही घर की चाहर दीवारी के भीतर दुबक कर ही माबाईल पर ऐसी टिप्पणियां कर रहे थे। कभी कभी सोशल मीडिया को देख कर ऐसा लगने लगता है कि सारा संर्घष और उसका निर्णय आम जनता ही करती है और बड़े से बड़ा देश सोशल मीडिया के हिसाब से ही अपने कदम उठा रहा हो। क्या वास्तविकता वही है जो हम सोच रहे हैं? या हमें
ऋतु कृष्णा चटर्जी/ Ritu Krishna Chatterjee