थोड़ा बुरा महसूस होगा, शायद शर्म भी आ जाए या लगेगा इन लिखने वालों को और कोई काम नही जहां देखो किसी न किसी बात का बतंगड़ बना देते हैं पर मैं करुं भी क्या...? मुझे ईष्वर में आस्था है और मेरे लिए ईष्वर सिर्फ पत्थर का बना ‘डेकोरेषन पीस’ न होकर जीवन्त अनुभूति है। मैंने सुना है कि एक विषेष समय तक पूजा पाठ करते रहने पर किसी भी मूर्ति या उससे जुड़ी वस्तु में प्राण आ जाते हैं, बिल्कुल किसी रिष्ते की तरह जब हम साल दर साल रिष्ते निभाते जाते हैं और एक दिन ऐसा आता है कि उस इन्सान के बिना हमारी जिन्दगी अधूरी लगने लगती है। किसी का बुरा नही मनाती पर कहीं उस इन्सान का प्रत्यक्ष शरीर किसी कारण से क्षतिग्रस्त हो जाए जैसे बीमारी हो जाए या हाथ पांव न रहे या चेहरा विकृत हो जाए तो क्या रिष्ता खत्म हो जाता है या हम उसे घर से निकाल कर सड़क पर तो मरने नही छोड़ देते...आप सोचेंगे ये सब बेतुकी बातें लिख कर प्रवचन का सूत्रपात कर रही हूं पर ऐसा नही है।
कुछ दिनों पहले की बात है, कालोनी के भीतर से पैदल टहलते हुए आ रही थी कि एकाएक ईश्वर के दर्शन हो गए। हर्षानुभूति की अथवा उद्वेलित होने की कोई आवश्यकता नही, ये दिव्य दर्शन मुझे चैराहे के किनारे लगे ट्रान्सफार्मर के पीछे हुए। जहां एक ओर कुछ कुत्ते भगवान की मूर्तियों पे लगा मीठा प्रसाद चाट रहे थे वहीं दूसरी तरफ गाय उनके पास ही मलमूत्र त्याग रही थी और ज़्य...ादा नही पर दो शूकर भी कुत्तों के डर से वहां पहुंचने का असफल प्रयास कर रहे थे जो निश्चित ही श्वान दल के जाने के बाद वहां जाकर लोटने वाले थे। मैंने उन मूर्तियों को बड़े गौर से देखा उनकी काफी तस्वीरें भी उतारीं, ध्यान से देखने पर पता चला कि लगभग सभी हिन्दू देवी देवता वहां उपस्थित हैं बस उनमें से सभी कहीं न कहीं से थोड़े टूट या घिस चुके हैं कुछ में वो रंगत नही रही और कुछ के चेहरे समझ नही आ रहे थे। उस समय हृदय में विकट कष्ट का आभास हुआ फिर अचानक ध्यान आया कि हमारे देश में लोग जीवित अवस्था में ही बूढ़े मां-बाप को सड़क पे छोड़ देते हैं, ये सब तो मूर्तियां हैं। संभवतः अब इन्हें कोई पूजना भी नही चाहता। चिलचिलाती धूप, गंदगी धूल धूंए के बीच पड़े ये भगवान कैसा अनुभव कर रहे होंगे? ये विडंबना केवल किसी एक कालोनी, मुहल्ले अथवा शहर की नही है, हर इलाके चैक चैराहे के आस पास, नाले के किनारे किसी पेड़ के नीचे आपको ईश्वर के ऐसे दुःखद अवस्था में पड़े ढेर मिल जाएंगे।
हिन्दु आस्था के अनुसार भगवान की टूटी मूर्ति घर में रखना अपशकुन है परन्तु ईश्वर की ऐसी भयानक अवहेलना पाप नही है। मंदिरों में सुबह शाम चमचमाती मूर्तियां खोजने जाने वाले लोग ऐसे भगवान को देखना भी नही चाहते होंगे तो घर से फालतू सामान हल्का करने के लिए इन्हें निकाल फेंका होगा। बूढ़े मां-बाप के लिए तो वृद्धाश्रम हैं पर टूटे फूटे पूजित भगवान को सर पे छत भी नसीब नही। कम से कम इनका जल विर्सजन या भू विर्सजन ही कर देते। इतना अपमान क्यूं...? ये भी हो सकता है कि इन भगवानों ने किसी की कोई मुराद न सुनी हो तो भगवान ही बदल दिए गए। हमारे देश में तो भगवान भी फैशन के साथ मार्केट की शान बढ़ाते हैं। इस दृष्टि से सोचूं तो अच्छा ही है कि कुछ धर्म मूर्ति पूजा में नही मानते कम से कम अपने ईश्वर को गंदगी में फेंकने तो लाख बेहतर है।
कैसे लोग यह बात भूल जाते हैं कि ईश्वर हमें भी वैसा ही रखता है जैसा हम उसे रखते हैं। हम दुःख में ईश्वर को पुकारते हैं पर वो किस प्रकार आए जब हमने पहले ही उसका इस प्रकार तिरस्कार किया हो? स्वच्छता को परम धर्म और सेवा मानने वाले लोग किस प्रकार कर्म के बल पर उन्नति कर लेते हैं और लेशमात्र संदेह नही कि ईश्वर खुले हाथों से ऐसे व्यक्ति की सहायता करता है। स्वच्छता ईश्वर को उतनी ही प्रिय है जितनी भक्ति और प्रेम क्यूंकि भक्ति और प्रेम भावना भी ऐसे ही हृदय में आती है जो अन्दर बाहर दोनों से साफ सुथरा हो, कारण आस पास के वातावरण का हमारे मन हृदय एवं शरीर पर समान रुप से प्रभाव पड़ता है। ऐसे सहस्त्रों उदाहरण मिल जाएंगे जहां स्वच्छ वातावरण में निवास करने वाले एक साधारण मनुष्य को ईश्वर ने धन धान्य से समृद्ध जीवन प्रदान किया है। वहीं कुछ ऐसे दरिद्र भी मिल जाएंगे जिनके पास सबकुछ होते हुए भी ईश्वर की अवहेलना एवं तिरस्कार के कारण कुछ भी नही। संभवतः लेशमात्र शांति भी नही...यह सब सुनने पढ़ने में प्रवचन जैसा प्रतीत हो रहा होगा परन्तु विश्वास करिए ये नितांत यर्थात के अलावा कुछ भी नही एक बार अपने कुंए से निकलकर आस-पास निगाह डालिए, आप स्वतः ही जान जाएंगे कि हिन्दुत्व अपने ही लोगों के कुकर्मों के चलते किस भयंकर खतरे में है।
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