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लखनऊ खामोश ही रहता है








वक़्त बेवक़्त बड़ी सी जम्हाई लेना मुझे बेहद पसंद है और सुबह शाम की एक प्याली चाय हल्की मीठी तेज़ पत्ती की अगर 4-5 बजे के दौरान मिल जाए तो चुस्की से चूकने का सवाल ही नही, बिना वजह किसी के साथ बैठकर पुरानी बीती बातों पे बहस करना तो अव्वल किस्म का शौक़ मानती हूं। कितना भी खाने पीने पर काबू रखने की सोचूं, चौक़ पास से गुज़रने पर नाक सारे बंधन तोड़कर पेट को इशारे करने लगता है कि फौरन ज़बान को खबर कर दे कि श्री की लस्सी, छोले भटूरे, अवध बिरियानी कॉर्नर, या कवाब परांठे की दुकान दांयी तरफ ही है। अब ऐसे में किसे परवाह है कि साहब दिल्ली वाली जीन्स और मुम्बई वाली टी-शर्ट टाईट हो गया तो क्या पहनेंगे? अरे चिकन के ढीले कुर्ते और सलवार पहन लेंगे, उसमें भी कम रौब नही पड़ता!
मुझे अकसर लखनऊ छोड़कर बड़े शहरों में जा बसे बेचारे दोस्तों की बातों को सुनना पड़ता है, बेचारे अपनी मिटटी से दूर होकर इसक़दर टूट गए हैं कि उनका हाल, ‘‘लोमड़ी के खटटे अंगूरों’’ की कहानी सा हो चला है। जब यहां रहने की खुशनसीबी ज़िन्दगी की ज़रूरतों में उलझकर बड़े शहरों के पहिये में पिस कर रह गया तो भलाई इसी में कि जो मिला उसे ही बेहतर मान लिया जाए। मुझे तो शायद लखनऊ से ऐसी मुहब्बत है, कि इतने सालों दिल्ली, भोपाल, मुम्बई और गुजरात की खाक छानने के बाद भी जब-जब लौट कर इस सब्ज़ बाग़ों के शहर को आए हमेशा सुकून ओ आराम ही मिला। थोड़ा कमाते हैं ज़्यादा उड़ाते हैं फिर भी कोई कमी नही महसूस होती, पता नही क्या जादू है इस शहर के माहौल में जहां कभी बोरियत तक नही होती, भले ही घण्टों बैठकर बुर्जों मीनारों को ताकते रहें।
हम लखनऊ वालों की दरिया दिली के किस्से इतिहास के पन्नों से बार बार निकल कर फिल्मों में आते रहे और लोग लखनऊ वालों के चरित्र पर बार बार नज़रिया बदलते रहे। कोई कहता आलसी थे, कोई कहता अयाश थे, मतलबी, कायर, बेमुरव्वत, बेवफा पर मज़े की बात इतने इलज़ाम लगे हम लखनऊ वालों के माथे और कोई एक बार भी बेदर्द न कह सका...क्यूंकि हर बार, हर हमले के बाद लखनऊ रोया ख़ून के आंसू ... वो रोया जब जब कोई नाफरमान विदेशी उसी के कलेजे में बैठकर किसी का सर कलम करता, किसी के हक़ को छीन अपने आराम तलबी का इंतज़ाम करता, वो जो आए इस शहर को बसाने वो अपने न थे, बावजूद इस सबके बदले में लखनऊ को शाही शहर में तब्दील करने के एवज में लखनऊ ने उन्हें अपने दिल में जगह दी। बड़े दिल वालों की इस जगह ने उन्हीं विदेशी खूंखार ताकतों के छोटे दिलो दिमाग़ और स्वार्थ को भी अपना लिया मानों उनका कोई एहसान चुकाना चाहता हो जो उन्होंने तो कभी किया ही नही, उल्टे इतिहास का एक पन्ना कहता है कि जब हुमायूं शेरशाह से हार कर मैदाने जंग से सुल्तानपुर होता हुआ भागा तो 4 घण्टों के लिए आराम फरमाने अवध के इस टुकड़े पर रूका जो लखनऊ कहा जाता था, उस वक़्त उसकी ज़रूरत और लाचारी से पसीज कर शहर वालों ने उसे 10 हज़ार रूपए और 50 घोड़े दिए जिससे वो आराम से आगे को जा सके। शायद ये शाहखर्ची और संपन्नता उस वक़्त हुमायूं के लिए शेर के ख़ून चख़ने जैसा हुआ बाद में अवध के साथ पूरा लखनऊ उसने अपनी ही सल्तनत में मिला लिया। कल तक जो किसी का न था वो किसी का होकर इस कदर खयुश था जैसे नई दुल्हन होती है, बिना जाने कि उसका दुल्हा कल उसे कैसा वक़्त दिखाने वाला है।
किसी को खैरात में मिला लखनऊ तो किसी ने छीन लिया, ईरान से आने वालों ने इसे मस्जिद, गुम्बदों मीनार का शहर बना दिया, फिर भी कुछ नही बोला... लखनपुरी के लक्ष्मण टीले पर बसे इस गांव को खेंचतानकर जब जो चाहा बनाया गया। एक के बाद एक सूबेदार नवाब और राजा आते गए। इसके खज़ाने लुटाते रहे कभी खुद पर तो कभी अंग्रेज़ों पर...अपनी आंखों के सामने अपन लोगों को कभी मजबूरी तो कभी डर से हिन्दु से मुसलमान और मुसलमान से कभी शिया तो कभी सुन्नी होते देखा। अपनों के हाथों शहर को रंगीन कोठे में तब्दील होते देखा , जिनको शहर की सुरक्षा का ज़िम्मा लेना था वही शहर के दलाल हो गए...पहले मुग़लों के तलवे चाटकर नवाबियत के मज़े लेते रहे फिर अंग्रेज़ों के रहमों करम पर राजा होकर ऐश करने लगे। लखनऊ की आंखों से देखो तो तकलीफ कुछ यूं इज़हार होगी कि,
‘‘वो जो आए थे हमें अपनाने वो अपने न बन सके, जो अपने थे नहीं उनसे रहम की क्या उम्मीद रखते हम?’’
जब अवध के आख़री नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेज़ मिटियाबुर्ज के लिए रवाना कर रहे थे, उस वक्त मुठ्ठी भर अंग्रेज़ों को रोकने के लिए लखनऊ का एक भी हाथ कुछ ऐसा सोचकर नही उठा कि, जो आए हैं वो भी पराए और जो जा रहे वो भी अपने न हो सके, हम लखनऊ वालों को मानों बेवफाई ही नसीब का हिस्सा लगी, तो ये सोच कर कि क्या फर्क पड़ता है? हम चुप रहे। हमारी चुप्पी ने यकीनन स्वतंत्रता संग्राम की नींव तभी रख दी थी, जिसका असर फौरन ही देखने को मिला। ख़ून से लाल सड़कों को देखा है लखनऊ ने, कटे जिस्म और चीखें सुनी है इसके कानों ने, हद दर्जा बरदाश्त किया हर तकलीफ को तो आज यूं तन के खड़ा है, सारी दुनिया में मिसाल बनकर, आज भी हर कोई इसका हिस्सा बनकर खुद को साबित करना चाहता है पर जैसा कि कहा मैंने इसे बेवफाई की बद्दुआ कुछ यूं लगी है कि आज तक इसे अपना मानने को कोई तैयार नही। इसकी मीनारें बूढ़ी हो चली हैं, गुम्बदों पर कालिख की परत आ चढ़ी है, इमारतों को सियासत का अखाड़ा बना दिया गया है और बाग़ बाग़ीचों को नंगी अयाशी का अड्डा बनाया जा रहा है। फिर भी लखनऊ खामोश है कि इससे भी बुरा वक़्त देखा है इसने और उसे यक़ीन है वक़्त की एक बेहद अच्छी ख़ूबी पर कि,
‘‘वक़्त अच्छा हो, या बुरा हो गुज़र ही जाएगा, अच्छा होगा तो बुरा दिखाएगा और बुरा हुआ तो फिर से अच्छा बनकर आएगा।’’

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