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क्या आपकी फटकार आपके बच्चे स्वीकार करेंगे???



क्या आपने कभी सोचा कि बच्चों के लिए कलम से इतना लिखना और लगातार पढ़ना हमसे अधिक सहज क्यूं होता है? हमारे लिए लिखना कभी कभी मुश्किल, कभी सिरदर्द तो कभी एकदम बोझ बन जाता है। एक उम्र के बाद हम सोच ज़्यादा सकते हैं और लिखना कम हो जाता है, यद्यपि हम ये भी आशा रखते हैं कि हमारी सोच समाज के सभी वर्गों अथवा वर्ग विशेष तक पहुंचे तथापि हम इसे पहुंचाने का सहज सरल माध्यम भी खोजना चाहते है किन्तु इतनी इच्छाओं के बाद भी कलम उठाकर कागज़ पर चलाना एक दुष्कर कार्य हो जाता है।
यह एक उलझी मानसिकता, आलस, कामचोरी अथवा थकान भी हो सकती है लेकिन इसका प्रमुख कारण अधिकतर आत्मविश्वास की कमी ही कहलाती है। दरअसल हम जो सोचते हैं उस सोच को हम कोई स्तर नही दे पाते, इसका कारण स्पष्टरूप से यही है कि हम स्वयं का सम्मान नही करते।
घर से निकलकर समाज में प्रवेश करने के बाद से आस पास के लोग जो भी राय हमारे या हमारे चरित्र के विषय में गढ़ते हैं हम उसी के अनुसार स्वयं को ढालने लगते हैं, हम भूल जाते हैं कि हमारे माता पिता ने हमें किस प्रकार पाल पोस कर बड़ा किया, कैसे संस्कार दिए अथवा वो हमारे बारे में क्या सोचते थे। हमें जब कोई राह चलता कह दे कि आप ऐसे या वैसे दिखते हैं तो हम पलट कर एक बार दर्पण भी नही देखते कि भाई हम वैसे नही हम तो वास्तव में ऐसे दिखते हैं।
घर में हुए अपमान, डांट या तिरस्कार हमारे लिए बडे़ क्रोध अथवा अपनों के लिए दुर्भावना का कारण बन जाता है जबकि वह सबकुछ हमें संभालने सही मार्गदर्शन हेतु अथवा हमारी सुरक्षा की दृष्टि से की या कही गई माता पिता की सहज प्रतिक्रियाएं होती हैं।
इसी जगह जब स्कूल, कॉलेज, व्यवसायिक गतिविधियों अथवा नौकरी में हमें भारी अपमान, फटकार और कभी कभी तो बडे़ घटिया स्तर के लोगों से चार बातें सुननी पड़ती हैं तो हमें बिल्कुल फर्क नही पड़ता। यहां संभवतः धन भी आड़े आ जाता होगा कि ठीक है अपमान ही सही पर अपमान के पैसे तो मिल रहें हैं ना, घर वाले तो मुफ्त की बातें सुनाते रहे। कुल मिला कर अपनों का कहा नासूर बन जाता है और परायों की गालियां बुरी नही लगतीं।
इस प्रकार का जीवन जीते जीते हम अपना आत्मसम्मान जाने अंजाने कहीं खो बैठते हैं और स्वयं के किए या कहे पर से भी विश्वास उठ जाता है, और हमारी कलम, सोच और कल्पनाएं भी दूसरों के इशारों पर नाचना सीख लेती है। प्रश्न छोटा परन्तुु महत्वपूर्ण है कि क्या ऐसे तैयार होकर हम अपने आगे की पीढ़ी को आत्मसम्मान और विश्वास से भरा जीवन दे पाएंगे? जब हमें ही अपनों की फटकार सहन नही थी तो क्या आपकी फटकार आपके बच्चे स्वीकार करेंगे???

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