एक कोई बात किसी भी कम्बल या रज़ाई से ज़्यादा गर्म होती है इतना तो मानेंगे न आप ? उदाहरण के लिए किसी भी मुद्दे की गर्मी देखिए ज़रा...हर हाथ उसे सेंकने को तैयार हो जाता है। जो मुद्दे का हिस्सा हैं उनके शरीर के हर हिस्से से पसीना टपक रहा होता है, और पारा है जो 2 डिग्री के नीचे गिरता जाता है। विवाद अदरक की चाय से ज़्यादा असरदार होता है जो हर ज़बान को गर्म रखता है और दिमाग को उबाल पर रखता है, भले ही बहस करने वालों के दिल बर्फ से ज़्यादा ठण्डे हों। किसी भी विषय को एक क्षण में राष्ट्रीय स्तर पर उछालना और दो कौड़ी के लोगों को सस्ता प्रचार दिलाने की बेवकूफी करने वालों को अब क्या कहा जाए। किसी भी फिल्म की औकात उस फिल्म के एक शो के टिकट से ज़्यादा नही होनी चाहिए, आपने फिल्म देखी हाॅल से निकले और टिकट को कूड़ेदान के हवाले कर दिया न कि बाकी की सारी ज़िन्दगी उसी फिल्म के ऊपर ही बिताने की शपथ खा ली। जब हम फिल्मों पर जीवन नही बिताते तो उसे ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत देने वाले काम क्यूं करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं फिल्में सिर्फ टाईम पास का ज़रिया होती हैं, उनसे हमारी कोई भी ज़रूरत पूरी नही होती। अगर ज़रूरत पूरी होती है तो सिर्फ फिल्म के निर्माता, और उसमें काम करने वालों की... उससे इतना ज़्यादा प्रभावित और आहत होकर हम दो-ढाई घण्टे की फिल्म को कभी-कभी अपने परिवार अपने माता पिता के जीवन भर के संस्कार, अपने धर्म, अपने भगवान की बराबरी पर लाकर खड़ा कर देते हैं। ऐसे में क्या हम अंजाने में उस नाकारात्मक ऊर्जा को भगवान के समान ही स्मरण नही करने लगते? वो क्या बनाते हैं ? क्या बेचते हैं? इसका उद्देश्य मात्र पैसा कमाना होता है और कुछ भी नही, मानवता की बातें, अच्छाई बुराई वगैरह सब केवल ढोंग है और फिल्मी कैरियर के सूर्य ढलने के समय झूठी समाज सेवा द्वारा राजनीति में प्रवेश के अलावा और कुछ भी नही होता। फिल्मी दुनिया वास्तविकता को भी फिल्मी तौर पर ही जीती है, ये लोग इतने आदी हो जाते हैं कि इनके निजी जीवन की रूपरेखा भी कभी-कभी किसी फिल्म की कहानी जैसी हो जाती है। हम तो विवाद, बहस, बुराई में उलझकर समय बिता देते हैं और उधर उनकी दुनिया में नए-नए खेल लिखे जाने की तैयारी में होते हैं जिससे फिर नया विवाद हो और मुफ्त की चर्चा और प्रचार करने के लिए देश तैयार हो जाए। नज़दीक से इस दुनिया को देखिए भीतर से सब खाली खोखले लोग मिलेंगे, और हम हैं कि उच्च रक्तचाप और दिल के दौरे के बाद भी फूलती सांसों के साथ रात दिन टीवी-अखबारों पर चीख-चीखकर बुराई और वाद विवाद की शक्ल में इन्हें आम से ख़ास बनाने की मुहिम में जुटे पड़े हैं। इन्हें इनकी औक़ात यानी फिल्म के ढाई घण्टे से ज़्यादा न बढ़ने दें...शो खत्म तो बस सोच भी हाॅल के भीतर छोड़ आईए!
एक कोई बात किसी भी कम्बल या रज़ाई से ज़्यादा गर्म होती है इतना तो मानेंगे न आप ? उदाहरण के लिए किसी भी मुद्दे की गर्मी देखिए ज़रा...हर हाथ उसे सेंकने को तैयार हो जाता है। जो मुद्दे का हिस्सा हैं उनके शरीर के हर हिस्से से पसीना टपक रहा होता है, और पारा है जो 2 डिग्री के नीचे गिरता जाता है। विवाद अदरक की चाय से ज़्यादा असरदार होता है जो हर ज़बान को गर्म रखता है और दिमाग को उबाल पर रखता है, भले ही बहस करने वालों के दिल बर्फ से ज़्यादा ठण्डे हों। किसी भी विषय को एक क्षण में राष्ट्रीय स्तर पर उछालना और दो कौड़ी के लोगों को सस्ता प्रचार दिलाने की बेवकूफी करने वालों को अब क्या कहा जाए। किसी भी फिल्म की औकात उस फिल्म के एक शो के टिकट से ज़्यादा नही होनी चाहिए, आपने फिल्म देखी हाॅल से निकले और टिकट को कूड़ेदान के हवाले कर दिया न कि बाकी की सारी ज़िन्दगी उसी फिल्म के ऊपर ही बिताने की शपथ खा ली। जब हम फिल्मों पर जीवन नही बिताते तो उसे ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत देने वाले काम क्यूं करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं फिल्में सिर्फ टाईम पास का ज़रिया होती हैं, उनसे हमारी कोई भी ज़रूरत पूरी नही होती। अगर ज़रूरत पूरी होती है तो सिर्फ फिल्म के निर्माता, और उसमें काम करने वालों की... उससे इतना ज़्यादा प्रभावित और आहत होकर हम दो-ढाई घण्टे की फिल्म को कभी-कभी अपने परिवार अपने माता पिता के जीवन भर के संस्कार, अपने धर्म, अपने भगवान की बराबरी पर लाकर खड़ा कर देते हैं। ऐसे में क्या हम अंजाने में उस नाकारात्मक ऊर्जा को भगवान के समान ही स्मरण नही करने लगते? वो क्या बनाते हैं ? क्या बेचते हैं? इसका उद्देश्य मात्र पैसा कमाना होता है और कुछ भी नही, मानवता की बातें, अच्छाई बुराई वगैरह सब केवल ढोंग है और फिल्मी कैरियर के सूर्य ढलने के समय झूठी समाज सेवा द्वारा राजनीति में प्रवेश के अलावा और कुछ भी नही होता। फिल्मी दुनिया वास्तविकता को भी फिल्मी तौर पर ही जीती है, ये लोग इतने आदी हो जाते हैं कि इनके निजी जीवन की रूपरेखा भी कभी-कभी किसी फिल्म की कहानी जैसी हो जाती है। हम तो विवाद, बहस, बुराई में उलझकर समय बिता देते हैं और उधर उनकी दुनिया में नए-नए खेल लिखे जाने की तैयारी में होते हैं जिससे फिर नया विवाद हो और मुफ्त की चर्चा और प्रचार करने के लिए देश तैयार हो जाए। नज़दीक से इस दुनिया को देखिए भीतर से सब खाली खोखले लोग मिलेंगे, और हम हैं कि उच्च रक्तचाप और दिल के दौरे के बाद भी फूलती सांसों के साथ रात दिन टीवी-अखबारों पर चीख-चीखकर बुराई और वाद विवाद की शक्ल में इन्हें आम से ख़ास बनाने की मुहिम में जुटे पड़े हैं। इन्हें इनकी औक़ात यानी फिल्म के ढाई घण्टे से ज़्यादा न बढ़ने दें...शो खत्म तो बस सोच भी हाॅल के भीतर छोड़ आईए!
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