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जो दिखता नही वो होता भी नही क्या?



मैंने ईश्वर को नही देखा, मैंने भूत नही देखे, हवा नही देखी और तो और घण्टों योग-ध्यान के पश्चात् भी मुझे अपनी आत्मा के दर्शन नही हुए, दूसरे तो छोड़िए मैंने तो अपनी पृथ्वी को भी नही देखा कि वो गोल है या चैकोर? परन्तु मुझे विश्वास है कि ये सब हैं ही क्यूंकि बाकी लोग बड़े दावे के साथ ऐसी ही कहते हैं। मतलब वे अप्रत्यक्ष रूप से इस बात को भी स्वीकार कर रहे हैं कि यदि कोई वस्तु व्यक्ति या घटना आंखों देखी न हो तो इसका मतलब ये नही कि वो है नही या घटित नही हुई। गुस्सा दिखे नही तो अंदाज़ा न लगाईए कि है नही, खुशी दिखे नही तो भी मत सोच लीजिए कि है नही, दुःख, द्वेष, स्वार्थ और प्रेम का भी यही हाल है, भावनाएं दिखती नही पर होती हैं। इसके ठीक उलट भावुकता स्पष्ट दिखती है जबकि वास्तविकता में वो होती ही नही जो होती तो स्थिर होती, स्वार्थ दिखता नही पर होता है क्यूंकि स्वार्थ ही सहसा भावनाओं और भावुकता दोनों को खा जाता है। झूठ होता नही पर लोग मान लेते हैं, सत्य होता है पर लोग मानते नही। सीधी सी बात है कि उसकी बनाई दुनिया में जो है उसे अकसर हम समझते हैं कि नही है और जो नही है उसे कहते हैं कि है... अब इसमें धर्म का विवाद मत ठूंसिएगा क्यूंकि है तो धर्म भी पर निभाने के अभाव में अब कहीं दिखता नही। हमने अपनी सुविधा अनुसार धर्म को एडजस्ट कर लिया है, भगवान से मिलने का समय सुबह 4 से 8 और शाम को भी 4 से 8 या 9 जो भी जाड़ा गर्मी बरसात के हिसाब से हमें जंच जाए। मैं तो हैरान हूं कि भगवान ने भी सेटलमेंट कर लिया है क्यूंकि भक्ति के बिना रह पाना उसके लिए ज़रा मुश्किल है, यहां ज़रा अपवाद है कि हमें तो भक्ति नही दिखती पर उसे स्पष्ट दिखती है, है न बड़े मज़े की बात, बिलकुल वैसे ही जैसे बेटे का सिगरेट पीना या बेटी का छुप कर प्रेमी से मिलकर आना मां से नही छुपता पिता भले ही एक बार को गच्चा खा जाए। 
कई लोगों का कहना है कि, Character is what you do when no one is looking, चरित्र का अर्थ है कि आप कोई काम कीजिए और उस समय आपको कोई देख न रहा हो। ये परिभाषा तनिक अटपटी है पर बात तो काफी हद तक इसमें भी मज़े की है, मतलब अगर कोई चीज़ दिखती नही तो वो है ही नही, जैसे छुपे हुए अवैध रिश्ते, प्रेम प्रसंग, छुपे हुए घोटाले, दबा दिए गए आपराधिक मामले, चुपचाप ली गई रिश्वत, चोरी जो पकड़ी न गई हो वगैरह वगैरह... हम हिन्दुस्तानियों को चरित्रहीनता के संदर्भ में ज़्यादा उदाहरण देने की आवश्यकता नही पड़ती। हम तो दूर से ताड़ लेते हैं कि क्या पक रहा है, और जो चल रहा है वो वैध है या अवैध! मेरे परम प्रिय नरेन्द्र मोदी भी फिल्में नही देखते ऐसा उन्होंने चुनावों के दौरान अपने एक इन्टरव्यू में भी कहा लेकिन 50 से 70 के दशक के फिल्मों के नायकों को गौर से देखिएगा तो आपको उन सबमें मोदी जी की झलक मिल जाएगी। कभी चाल-ढाल में, कभी बातचीत के अंदाज़ में यहां तक के पहनावों में भी काफी समानताएं दिख जाती हैं। अब इतना तो है ही कि उन नायकों ने मोदी जी का अनुसरण नही किया होगा। बहरहाल मैं माननीय प्रधानमंत्री महोदय को लेकर कोई टिप्पणी करने के लिए एकदम उत्सुक नही हूं मैं तो इत्तेफाक और मक्कारी में अंतर बताने का प्रयास कर रही थी, तो मैं विषय पर लौटती हूं कि यदी कोई चीज़ हमने देखी नही इसका मतलब यह नही कि वह हैं नही या होंगी नही या हो नही सकती। मसलन...पहले मीडिया इतनी विकसित नही थी तो इसका अर्थ यह नही कि हत्या, बलात्कार और अन्य अपराध होते नही थे, हत्या बलात्कार जैसे अपराध तो वैदिक काल से होते चले आ रहे हैं, बल्कि धन्य है मीडिया कि अब अपराध करने के पहले अपराधी अपने व्यक्तित्व की पूरी जांच करके निश्चिन्त हो जाना चाहता है कि पकड़े जाने के बाद टी.वी पर उसका चेहरा ठीक ठाक दिखे। मज़े की बात तो यह है कि फिल्मी सितारों और नेताओं की तरह अब अपराधियों ने भी अपराध को टी.वी पर दिखने का और घर घर प्रचार का मुफ्त साधन बना लिया है। बलात्कारी राम सिंह, बेटी आरूषि के हत्यारे मां-बाप तलवार दम्पत्ति, नोयडा का नरपिशाच सुरेन्द्र कोहली, तनिक ऊंचे लेविल पर आईए तो ओसामा, दाउद, छोटा शकील, अबु सलेम वगैरह कमीनों की फेहरिस्त सही पर इतना तो आप मानेंगे कि ये नाम आपकी स्मृति से कभी नही जाएंगे भले ही गुस्से के कारण...पर याद तो हैं न?
अब तो कई महीनों तक आप पीके फिल्म को भी नही भूलने वाले...आ गया न फिर से आमिर ख़ान पर गुस्सा? पर मैं दावे के साथ एक बात कह सकती हूं कि आमिर के मुस्लिम होने या हिन्दू विरोधी कुकर्मों का ध्यान आपको उस समय बिल्कुल नही आया होगा जब हर हिन्दुस्तानी ‘‘लगान’’ के आॅस्कर में सफल होने की प्रार्थना कर रहा था, ‘‘तारे ज़मीन पर’’ की तारीफ करते करते जीभ थक नही रही थी, रियेलिटी शो ‘‘सत्यमेव जयते’’ देखते समय आमिर से बड़ा देशभक्त भी दूसरा नही दिखता होगा। अचानक ही कबीर के दोहे की अधूरी लाईन याद आ गई मुझे, ‘‘...बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाए’’ बस तो मैं पुनः मुख्य मुद्दे पर आ जाती हूं कि यदि किसी बात का हमें पता नही चलता तो उसका अर्थ ये नही होना चाहिए कि वो है नही।

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