गुरू का होना जीवन को मायने देता है, सोच और विचार को नई दिशा देता है साथ ही उस ज्ञान का भी पूर्नस्मरण कराता है, जो हम जन्म के बाद घर के बड़े बुजु़र्गों और माता पिता से प्राप्त तो करते है किन्तु वह कहीं हमारे सुप्त मस्तिष्क में जाकर बैठ जाता है और व्यवहारिक जीवन में हम उसका प्रयोग नही कर पाते। जब गुरू हमें पुनः उस ज्ञान से परिचित करवाते हैं, उस समय अकसर हमारे मन में यह बात आती है कि यह तो हम पहले से ही जानते थे फिर हमारे मन में पहले यह विचार क्यूं नही आया? यहीं आकर हमें आभास होता है कि गुरू न होते तो क्या होता? जानते तो हम सबकुछ हैं कभी अपने संस्कारों कभी पूर्वजन्म के संस्कारों तो कभी आस पास के वातावरण में भी ऐसा ज्ञान हमारी दृष्टि से होकर गुज़रता है किन्तु हम संभवतः इन्हें दूसरों के लिए छोड़ देते हैं और स्वयं को पूर्ण समझने के अहं में यह भूल जाते हैं कि मनुष्य मात्र के लिए यह सारी जानकारी, गुण, ज्ञान और विचार आदि कितने महत्वपूर्ण हैं। जो अपेक्षा सामने वाले से हम रखते हैं वही अपेक्षाएं अथवा आशा सामने वाला भी हमसे रखता है। आपको ईश्वर नही परखता, आपको आपके सहजन, मित्र, सहयोगी और परिवार ही परखते है। जितनी आशाएं आप उनसे करते हैं उतनी ही आशाएं और अपेक्षाएं उनको आप से रहती हैं, न एक कम न एक ज़्यादा। जीवन भर उनकी इच्छापूर्ति और खुशियों के लिए जितना संर्घष आप करते हैं, उतना ही संर्घष वे भी आपके चेहरे की एक मुस्कान के लिए अनवरत करते ही रहते हैं। फिर आप कैसे स्वयं को यह कह देते हैं कि आप बंधनों में बंधे हैं, क्या आप नही जानते कि आपके साथ साथ वह व्यक्ति भी या तो प्रेम से या जबरन बंधन में ही बंधा हुआ है। कभी कभी विचार मेल नही खाते और कभी कभी तो कोई भी विचार मेल नही खाते ऐसे में केवल स्वयं को ही बंधन में बंधा हुआ और सबके लिए एकमात्र उत्तरदायी समझना भी घमण्ड का एक स्वरूप है। सबके लिए ईश्वर है और सब ईश्वर के लिए हैं, न तो आप बहुत विशेष हैं और न ही अगला व्यक्ति आपसे कम विशेष है। ऐसा कैसे संभव है कि केवल सामने खड़ा व्यक्ति ही हमारी आशाओं पर खरा उतरता रहे और हम उसे अपने अधूरे ज्ञान के बल पर परखते रहें। हो सकता है कि सामने खड़ा मनुष्य भी आपको अपनी कसौटी पर परख रहा हो और आप अपने मानसिक अधूरेपन के कारण उसकी दृष्टि में असफल सिद्ध हो जाएं। इसी असफलता से बचने के लिए उस ज्ञान का पुनः एवं पूर्ण स्मरण अति आवश्यक है जिसे केवल एक गुरू ही आपको प्रदान कर सकता है। वह गुरू इसीलिए है क्यूंकि ईश्वर स्वयं आकर बार बार आपको हर जन्म में एक ही बात व्यक्तिगत रूप से नही सिखा सकता, आप अपना प्रण तोड़ने में माहिर हो चुके हैं। हर बार जन्म लेने के पहले और मृत्यु के समय आप भगवान के समक्ष वचन लेते है और फिर संसार में आते ही उसे भूल जाते हैं। सारे नियम सारे सत्य और सारे कर्तव्य, सब पीछे छोड़ कर आप किसी अलग ही रंग का जीवन तब तक जीते रहते हैं जबतक आपको भीतर से यह सब व्यर्थ का समय नष्ट करने जैसा नही लगने लगता। कई बार चेतावनी देने के बाद भी जब आप ईश्वर का संकेत नही समझ पाते तब वो आपको अनुभव कराता है कि आपको कोई मार्गदर्शक चाहिए। मंदिर और भगवान की तस्वीर के समक्ष घण्टों बैठ कर भी आपको वह उत्तर नही मिलता जो वास्तव में केवल गुरू ही आपको दे सकता है।
गुरू का होना जीवन को मायने देता है, सोच और विचार को नई दिशा देता है साथ ही उस ज्ञान का भी पूर्नस्मरण कराता है, जो हम जन्म के बाद घर के बड़े बुजु़र्गों और माता पिता से प्राप्त तो करते है किन्तु वह कहीं हमारे सुप्त मस्तिष्क में जाकर बैठ जाता है और व्यवहारिक जीवन में हम उसका प्रयोग नही कर पाते। जब गुरू हमें पुनः उस ज्ञान से परिचित करवाते हैं, उस समय अकसर हमारे मन में यह बात आती है कि यह तो हम पहले से ही जानते थे फिर हमारे मन में पहले यह विचार क्यूं नही आया? यहीं आकर हमें आभास होता है कि गुरू न होते तो क्या होता? जानते तो हम सबकुछ हैं कभी अपने संस्कारों कभी पूर्वजन्म के संस्कारों तो कभी आस पास के वातावरण में भी ऐसा ज्ञान हमारी दृष्टि से होकर गुज़रता है किन्तु हम संभवतः इन्हें दूसरों के लिए छोड़ देते हैं और स्वयं को पूर्ण समझने के अहं में यह भूल जाते हैं कि मनुष्य मात्र के लिए यह सारी जानकारी, गुण, ज्ञान और विचार आदि कितने महत्वपूर्ण हैं। जो अपेक्षा सामने वाले से हम रखते हैं वही अपेक्षाएं अथवा आशा सामने वाला भी हमसे रखता है। आपको ईश्वर नही परखता, आपको आपके सहजन, मित्र, सहयोगी और परिवार ही परखते है। जितनी आशाएं आप उनसे करते हैं उतनी ही आशाएं और अपेक्षाएं उनको आप से रहती हैं, न एक कम न एक ज़्यादा। जीवन भर उनकी इच्छापूर्ति और खुशियों के लिए जितना संर्घष आप करते हैं, उतना ही संर्घष वे भी आपके चेहरे की एक मुस्कान के लिए अनवरत करते ही रहते हैं। फिर आप कैसे स्वयं को यह कह देते हैं कि आप बंधनों में बंधे हैं, क्या आप नही जानते कि आपके साथ साथ वह व्यक्ति भी या तो प्रेम से या जबरन बंधन में ही बंधा हुआ है। कभी कभी विचार मेल नही खाते और कभी कभी तो कोई भी विचार मेल नही खाते ऐसे में केवल स्वयं को ही बंधन में बंधा हुआ और सबके लिए एकमात्र उत्तरदायी समझना भी घमण्ड का एक स्वरूप है। सबके लिए ईश्वर है और सब ईश्वर के लिए हैं, न तो आप बहुत विशेष हैं और न ही अगला व्यक्ति आपसे कम विशेष है। ऐसा कैसे संभव है कि केवल सामने खड़ा व्यक्ति ही हमारी आशाओं पर खरा उतरता रहे और हम उसे अपने अधूरे ज्ञान के बल पर परखते रहें। हो सकता है कि सामने खड़ा मनुष्य भी आपको अपनी कसौटी पर परख रहा हो और आप अपने मानसिक अधूरेपन के कारण उसकी दृष्टि में असफल सिद्ध हो जाएं। इसी असफलता से बचने के लिए उस ज्ञान का पुनः एवं पूर्ण स्मरण अति आवश्यक है जिसे केवल एक गुरू ही आपको प्रदान कर सकता है। वह गुरू इसीलिए है क्यूंकि ईश्वर स्वयं आकर बार बार आपको हर जन्म में एक ही बात व्यक्तिगत रूप से नही सिखा सकता, आप अपना प्रण तोड़ने में माहिर हो चुके हैं। हर बार जन्म लेने के पहले और मृत्यु के समय आप भगवान के समक्ष वचन लेते है और फिर संसार में आते ही उसे भूल जाते हैं। सारे नियम सारे सत्य और सारे कर्तव्य, सब पीछे छोड़ कर आप किसी अलग ही रंग का जीवन तब तक जीते रहते हैं जबतक आपको भीतर से यह सब व्यर्थ का समय नष्ट करने जैसा नही लगने लगता। कई बार चेतावनी देने के बाद भी जब आप ईश्वर का संकेत नही समझ पाते तब वो आपको अनुभव कराता है कि आपको कोई मार्गदर्शक चाहिए। मंदिर और भगवान की तस्वीर के समक्ष घण्टों बैठ कर भी आपको वह उत्तर नही मिलता जो वास्तव में केवल गुरू ही आपको दे सकता है।
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