जिन नेताओं, समाज सेवकों कलाकारों और विभूतियों के नाम से हमें नकली ट्वीट और बयान सोशल पटल पर देखने को मिलते हैं, अधिकतर हम उनके वास्तविक होने पर ध्यान ही नही देते। क्या ये एक प्रकार का मानसिक रोग नही है? तो क्या हम रोगी हैं? करोना न सही, सोशल मीडिया ही सही, उद्देश्य तो अपंग बनाने से है, हाथ पैर के साथ साथ मस्तिष्क को भी। क्या आपको कभी कभी यह महसूस नही होता कि आप बिना सोशल मीडिया पर दो चार बेसिर पैर के कमेंट किए अपना दिन बिता सकते हैं? लेकिन नही इन दिनों आप ऐसा सोच भी नही सकते। हम सोशल मीडिया पर ही मौलाना साद को खोजने लगते हैं, हम सोशल मीडिया पर ही विकास दूबे के ब्राहमण होने या अपराधी होने के विषय पर निरर्थक विवाद में उलझे रहते हैं। लाॅक डाउन सही था या ग़लत, और लाॅक डाउन को मानने या न मानने वाले दोनों ही घर की चाहर दीवारी के भीतर दुबक कर ही माबाईल पर ऐसी टिप्पणियां कर रहे थे। कभी कभी सोशल मीडिया को देख कर ऐसा लगने लगता है कि सारा संर्घष और उसका निर्णय आम जनता ही करती है और बड़े से बड़ा देश सोशल मीडिया के हिसाब से ही अपने कदम उठा रहा हो। क्या वास्तविकता वही है जो हम सोच रहे हैं? या हमें किसी और की सोच के हिसाब से चलने पर बाध्य किया जा रहा है? कांग्रेस और भाजपा के बीच का संघर्ष भी अकसर विश्वयुद्ध का सा रूप ले लेता है और हमारे आस पास घट रही महत्वपूर्ण घटनाएं एकदम से मीडिया गायब कर देती है। ये कहीं हमें व्यस्त रखने का षड़यंत्र तो नही? इतना व्यस्त कि धर्म जाति के विवाद के बीच किसी निरपराध, निर्दोष अथवा असहाय जीव के प्रति करूणा व्यक्त करने का भी हमारे पास समय नही होता।
आत्मीयता केवल उसी से जो हमारे विचारों से सहमत हो, जिसने भी बात काटने या विरोध करने का प्रयत्न किया वो पराया अज्ञात व्यक्ति भी एक पल में प्राणघातक शत्रु हो जाता है। खीज, चिढ़, निराशा और हताशा से भरकर जो मन में आए, जी भर कर आपस में ही एक दूसरे को नीचा दिखाने का जी तोड़ प्रयास क्या बीमार मानसिकता का परिचायक नही है। आपके साथ आपकी संतानों को भी इसी बीमारी की छूत लग रही होगी ऐसा सोचने का मौका आपको दिया ही नही जाता। खूब व्यस्त रहिए, जम के संसार के सामने अपने जीवन का रोना रोईए फिर वास्तविक धर्म की शिक्षा भी बांटिए और अंततः जब कुछ न बचे तो, अज्ञात शैतानों द्वारा तोड़ मरोड़ कर पोस्ट किए गए बयानों को जम कर शेयर कीजिए।
इस बात से कतई इंकार नही किया जा सकता कि मूर्ख को मूर्ख और विद्वान को विद्वान नही तो और क्या कहेंगे? किन्तु दूसरों की विद्वता और मूर्खता परखते परखते हम स्वयं को समाज के सामने जड़ मूर्ख सिद्ध करते जा रहे हैं ये बात भी कम चिन्ताजनक नही है।
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