Udham Singh[middle] after shooting Govn.Dwayer |
सन् 1940 लंदन के ओल्ड वेली कोर्ट के बन्द कमरे की अदालत में एक मुकदमा चल रहा था।
‘‘मुझे इस बात की कोई परवाह नही है कि मुझे दस-बीस साल कैद या फांसी की सजा मिलती है। मैंने तो केवल अपना कर्तव्य पूरा किया है।’’ फिर उसने चिल्लाकर कहा... ‘‘मैं ब्रिटिष साम्राज्यवाद को मुर्दाबाद कहता हूं। यदि तुम्हारे अंदर इंसानियत बची है तो तुम सबको डूब मरना चाहिये। तुम जंगली, खून पीने वाले खुद को सभ्यता का ठेकेदार कहते हो...? लेकिन तुम लोग हरामजादे और दोगले हो।’’
अदालत में जज की कुर्सी पर बैठा एक तरफा फैसला सुनाने को तैयार जज एटकिन्सन ने जवाब दिया--- ‘‘मुझे तुम्हारी सियासी बकवास नही सुनना। इस मुकदमे के बारे में अगर तुम्हे कुछ कहना हो तो वही कहो। जो कुछ तुम बोल रहे हो वो कहीं प्रकाषित नही होने वाला।’’
यह सुनकर वह दहाड़ा - ‘‘मुझे मृत्युदण्ड की परवाह नही है, ना ही मुझे इसकी चिन्ता है। कटघरे की मुंडेर पर मुक्का मारते हुए वो गरजा - ‘‘मैं मौत से नही डरता मुझे अपने मरने पर गर्व है, क्योंकि मुझे अपना देष आजाद कराना है। जब मैं नही रहूंगा तब मेरे हजारों देषवासी मेरी जगह ले लेंगे और तुम गंदे कुत्तों को भगाकर मेरे देष को आजाद कराएंगे।’’
अदालत में उधम सिंह से एक ऐसा प्रष्न भी पूछा गया जिसका उत्तर सुनकर एक बारगी पाड्ढाण हृदय वाले अंग्रेजों की भी बोलती बंद हो गई। उनसे पूछा गया कि वे माईकल ओ’डवायर के बाकी साथियों को भी मार सकते थे लेकिन उन्होने ऐसा नही किया, क्यों? उधम सिंह फट पड़े, ‘‘वहां ओ’डवायर के साथ महिलाएं भी थीं और हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार महिलाओं पर हमला करना पाप है।’’
ये सब पढ़कर बेहद अजीब सा अनुभव हो रहा होगा, आखि़र क्यूं चल रहा था ये मुकदमा? कौन था ये युवक जो अकेला अंग्रेजों से उन्हीं के देष की अदालत में संघड्र्ढ कर रहा था? बचाव पक्ष का वकील क्यूं नही था? जबकि अंग्रेजी कानूून और इंसाफ की आज भी मिसालें दी जाती हैं?
रौलेट एक्ट मार्च 1919 यह भारतीयों के विरूद्ध एक ऐसा कानून था जिसके तहत किसी भी भारतीय पर किसी भी भारतीय न्यायालय में मुकदमा चलाया जा सकता था और उसे बिना कोई दण्ड दिए जेल में भी बंद रखा जा सकता था। इस एक्ट या कानून के विरोध में महात्मा गांधी ने व्यापक हड़ताल का आõान तो किया ही साथ ही देषव्यापी हड़तालें, जुलूस एवं प्रदर्षन भी होने लगे। इतने कड़े विरोध के बाद भी अमृतसर के दो देषभक्त डा0 सैफुद्दीन किचलू जो कि एक मुस्लिम अधिवक्ता थे और राजनीतिक बदलाव के बारे में जनसभाएं किया करते थे जिससे जनजागरण तो हो ही रहा था और साथ ही शान्त रूप से लोगों के भीतर क्रान्ति की भावना भी बलवती हो रही थी और दूसरे डा0 सत्यपाल जो प्रथम विष्व युद्ध के दौरान सैन्य चिकित्सा सेवा अधिकारी थे और उन्हें अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन के तहत जनता में उत्तेजनापूर्ण भाड्ढण देने से रोकना अंग्रेजी हुकूमत की प्राथमिकता बन गई थी इन दोनों की गिरफ्तारी भी इसी कानून के तहत हो गई। इन दोनों की रिहाई के लिए पंजाब की जनता ने विरोध प्रदर्षन तो किए ही साथ ही महात्मा गांधी की हिंसात्मक गतिविधियों के प्रति असहमति के बावजूद इस भीड़ ने इन्हीं गिरफ्तारियों और रोलेट एक्ट के विरोध में एक अहिंसात्मक जनसभा के लिए उस दिन का चुनाव हुआ यानि 13 अप्रैल 1919 जलियांवाला बाग ...इसकी बनावट कुछ ऐसी थी 6 से 7 एकड़ का क्षेत्र यानि लगभग 28000 वर्ग मीटर इसमें पांच प्रवेष द्वारों के अलावा बाकी चारों तरफ ऊंची दीवारें थीं, चार प्रवेष द्वारा बेहद संकरे थे जिनमें से एक वक्त में कुछ ही लोग एक साथ या तो बाहर जा सकते थे या बाहर से आ सकते थे, पांचवा मार्ग हथियारों से लैस सैनिकों द्वारा बन्द कर दिष गया था। दो हथियारबन्द गाडि़यां जो मषीनगन से लदी हुई थीं उन्हें मार्ग संकरा होने के कारण भीतर नही लाया जा सका था, और उन्हें लाने की कोषिष में रास्ता पूरी तरह जाम हो गया था। चारों तरफ ऊंची दीवारों से घिरा ये स्थान जनसभाओं के लिए एक सार्वजनिक और सुविधाजनक स्थान था। यहां पर आजादी के षहीदों को श्रद्धान्जली अर्पित करने और अहिंसा के सर्मथन में षान्तिसभा के लिए उस षाम सैंकड़ों लोग एकत्रित हुए थे, इनमें युवाओं के अलावा औरतें, वृद्धजन, बच्चे भी षामिल थे। कोई सोच भी नही सकता था कि अभी थोड़ी ही देर में क्या कुछ होने वाला है। वो दिन बैसाखी का था और दूसरे दिनों के अनुपात में वहां भीड़ कुछ ज्यादा थी और शान्ति सभा के नाते केवल स्थानीय नेता ही भीड़ को संबोधित कर रहे थे। वहां जमा हजारों लोगों में उत्साह तो था पर किसी प्रकार की उत्तेजना नही थी।
ब्रिगेडियर जनरल डायर ने अपने 90 सैनिकों सहित उस स्थान को घेर लिया जिनमेें प्रथम/नवीं 25 गोरखा राईफल, 25 पठान और बलूच जो 54वीं सिख और 59वीं सिंध राईफल से थे, इन सबके पास 303 ली-एनफील्ड राईफलें थी और स्वाभाविक रूप से गोरखा राईफल के जवानों अपनी चिरपरिचित हथियार खुखरी से लैस थे। डायर ने अपनी टूटी फूटी भाड्ढा में एक छोटी सी चेतावनी दी... "You people know well that I am a Sepoy and soldier. Do you want war or peace? If you wish for a war, the Government is prepared for it, and if you want peace, then obey my orders and open all your shops; else I will shoot. For me the battle-field of France or Amritsar is the same. I am a military man and I will go straight. Neither shall I move to the right nor to the left. Speak up, if you want war? In case there is to be peace, my order is to open all shops at once. You people talk against the Government and persons educated in Germany and Bengal talk sedition. I shall report all these. Obey my orders. I do not wish to have anything else. I have served in the military for over 30 years. I understand the Indian Sepoy and Sikh people very well. You will have to obey my orders and observe peace. Otherwise the shops will be opened by force and Rifles. You will have to report to me of the Badmash. I will shoot them. Obey my orders and open shops. Speak up if you want war? You have committed a bad act in killing the English. The revenge will be taken upon you and upon your children." (तुम लोग बहुत अच्छे से जानते हो कि मैं एक सिपाही हूं। तुम्हे शान्ति चाहिए या युद्ध? अगर तुम्हें युद्ध चाहिए तो सरकार इसके लिए तैयार है, अगर शान्ति चाहिए तो मेरी आज्ञा का पालन करो और बाजार खोल दो वरना मैं गोली मार दूंगा। मैं दाएं बांए करने वालों में से नही हूं। बोलो अगर तुम्हे युद्ध चाहिए? शान्ति की मांग है तो सारी दुकाने खोलो अभी। तुम लोग सरकार के विरूद्ध बोलते हो...मैं इसकी रिपोर्ट करूंगा। मेरी आज्ञा का पालन करो, मुझे और कुछ नही चाहिए। तुम्हे मेरी आज्ञा माननी होगी और शान्ति का ख्याल रखना होगा, वरना राईफल और ताकत के बल पर दुकानें खुलवाई जाएंगी। बोलो तुम्हे शान्ति चाहिए या युद्ध? तुम लोगों ने अंग्रेजों को मारने जैसा बुरा काम किया है। इसका बदला तुमसे और तुम्हारे बच्चों से लिया जाएगा।)
(इसे 14 अप्रैल 1919 को एक दैनिक उर्दू अखबार ने अक्षरषः छापा था) देने के बाद बिना कोई समय दिए अचानक ही सैनिकों को सीधे भीड़ को निषाना बनाकर गोली चलाने के निर्देष दे दिए उन लोगों ने निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाना आरंभ कर दिया और हजारों की भीड़ गोलियों से बचने के लिए प्रवेष द्वारों की तरफ भागने लगी, भीड्ढण भगदड़ मच गई और बन्दूकों ने भागती भीड़ को ही अंधाधुन्ध निषाना बनाना शुरू कर दिया। कुछ लोग दीवार को फांदने की असफल कोषिष में लगे रहे और बुरी तरह गोलियों का षिकार बन गए। भीड़ में शामिल औरतें, बच्चे और वृद्ध जो दीवार पर नही चढ़ सकते थे और न ही दरवाजे की ओर भाग सकते थे उनके पास एक मात्र रास्ता मैदान में स्थित कुंए में छुपना ही बचा था, उनकी सोच थी कि गोलियां चलना बन्द होते ही वो बाहर आ जाएंगे पर एक के बाद एक लोगों का कुएं में छलांग लगाते रहने से कूंआ लाषों से पट गया। सर्वाधिक मर्मान्तक था कि जिन दरवाजों से लोग बाहर को भाग रहे थे गोलियां भी वहीं से बरस रही थीं। यानि मौत से बचने के लिए लोग मौत की तरफ ही भाग रहे थे। इस भगदड़ में सैंकड़ों पैरों तले कुचल दिए गए। जो लोग गोलियों से बचने के लिए जमीन पर लेट गए थे उन्हें भी बर्बरतापूर्वक गोली का षिकार बना डाला गया। गोलियां तब-तक चलती रहीं जब-तक कि 1650 राउंड के गोला-बारूद पूरी तरह खत्म नही हो गए। लगातार 10 मिनट तक गोलियां चलीं। इसी के साथ जनरल डायर के निर्देष भी बराबर सेना को मिल रहे थे कि जहां-जहां भीड़ भागे उसी तरफ निषाना लगाया जाए मानों जंगली जानवरों का षिकार किया जा रहा हो। पहले कुछ सिपाहियों ने राईफल ऊपर को उठाकर हवा में गोली चलाने की कोषिष की जिससे भीड़ को सावधान किया जा सके पर डायर चीखा,‘‘बन्दूकें सीधी करो और इन सालों को भून डालो तुम्हें यहां किसलिए लाया गया है?
इस भीषण नरसंहार के पीछे ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड एडवर्ड हैरी डायर का चेहरा विजयी मुस्कान लिए खड़ा था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 379 लोग मारे गए थे और 1000 से ज्यादा घायल हुए थे जबकि 120 लाषें सिर्फ कूंए से ही निकाली गई थीं। पण्डित मदनमोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे, स्वामी श्रद्धापंद के अनुसार 1500 से ऊपर लोग हताहत हुए थे वहीं अमृतसर के सिविल सर्जन डाॅक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से भी ज्यादा थी। जो भी हो इस काण्ड में मरने वालों की सही संख्या कभी सामने नही आ पाई। स्वर्णमंदिर के पास जलियांवाला बाग का यह सामूहिक नरसंहार सदी का सबसे दुर्दान्त और अमानवीय कृत्य था। पूरे विष्व के सभ्य समाज ने डायर के इस कृत्य की कठोर शब्दों में भर्तस्ना की यहां तक कि इंग्लैण्ड के अखबारों ने इस अमानवीय कत्लेआम को ब्रिटिष हुकूमत के लिए काला दिन बताया। जनरल डायर पर जांच बिठाई गई और उसमें भी जनरल डायर का रवैया बेहद अमानवीय और क्रूर रहा उन्होंने कहा कि अगर हमारे पास और गोलियां बची होती तो हम कुछ राउंड की फायरिंग और करवाते। अंग्रेजी कानून जिसे अपने पे नाज है जनरल डायर को इस भयंकर भूल का उचित दण्ड नही दे पाए जबकि साक्ष्यों की कमी नही थी। उस समय कांग्रेस की गांधीवादी नीति जनरल डायर के इस कदम की निन्दा तो करती थी लेकिन इसकी अनुमति नही देती थी कि अहिंसा का मार्ग छोड़ दिया जाए। गांधी जी की अहिंसावादी नीति का प्रभाव कुछ ऐसा था कि हिंसा के बारे में कोई भी कांग्रसी सोचना भर भी नही चाहता था। जवाहर लाल उस परिस्थिति मेें भी स्वयं पर नियंत्रण बनाए रहे जबकि ट्रेन के एक ही डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर स्वयं वे और नीचे की बर्थ पर जनरल डायर यात्रा कर रहे थे, मन में बदला लेने की कठोर भावना जागृत हो जाने पर भी जवाहर ने स्वयं को यह कह कर रोक लिया कि किसी भी प्रकार की हिंसात्मक कार्यवाही समस्त गांधवादी नीति को शर्मसार कर देगी। उधम सिंह जलियांवाला बाग के इस नरसंहार के प्रत्यक्ष दर्षियों में से थे, उस समय उधम सिंह जनसभा में लोगों को पानी पिलाने को काम कर रहे थे। इस सारे घटनाक्रम से उधम सिंह भीतर ही भीतर छटपटाहट और उत्तेजना से भर गए। हिन्दू मुस्लिम एकता की नींव रखने वाले राम मुहम्मद आजाद सिंह ने इस घटना के लिए तत्कालीन पंजाब प्रान्त के गवर्नर माईकल ओ’डवायर को जिम्मेदार ठहराया। 21 वड्र्ढीय इस नवयुवक ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर शपथ ली कि वो इस घटना के जिम्मेदार को जीवित नही छोड़ेगा।
‘‘मुझे इस बात की कोई परवाह नही है कि मुझे दस-बीस साल कैद या फांसी की सजा मिलती है। मैंने तो केवल अपना कर्तव्य पूरा किया है।’’ फिर उसने चिल्लाकर कहा... ‘‘मैं ब्रिटिष साम्राज्यवाद को मुर्दाबाद कहता हूं। यदि तुम्हारे अंदर इंसानियत बची है तो तुम सबको डूब मरना चाहिये। तुम जंगली, खून पीने वाले खुद को सभ्यता का ठेकेदार कहते हो...? लेकिन तुम लोग हरामजादे और दोगले हो।’’
अदालत में जज की कुर्सी पर बैठा एक तरफा फैसला सुनाने को तैयार जज एटकिन्सन ने जवाब दिया--- ‘‘मुझे तुम्हारी सियासी बकवास नही सुनना। इस मुकदमे के बारे में अगर तुम्हे कुछ कहना हो तो वही कहो। जो कुछ तुम बोल रहे हो वो कहीं प्रकाषित नही होने वाला।’’
यह सुनकर वह दहाड़ा - ‘‘मुझे मृत्युदण्ड की परवाह नही है, ना ही मुझे इसकी चिन्ता है। कटघरे की मुंडेर पर मुक्का मारते हुए वो गरजा - ‘‘मैं मौत से नही डरता मुझे अपने मरने पर गर्व है, क्योंकि मुझे अपना देष आजाद कराना है। जब मैं नही रहूंगा तब मेरे हजारों देषवासी मेरी जगह ले लेंगे और तुम गंदे कुत्तों को भगाकर मेरे देष को आजाद कराएंगे।’’
अदालत में उधम सिंह से एक ऐसा प्रष्न भी पूछा गया जिसका उत्तर सुनकर एक बारगी पाड्ढाण हृदय वाले अंग्रेजों की भी बोलती बंद हो गई। उनसे पूछा गया कि वे माईकल ओ’डवायर के बाकी साथियों को भी मार सकते थे लेकिन उन्होने ऐसा नही किया, क्यों? उधम सिंह फट पड़े, ‘‘वहां ओ’डवायर के साथ महिलाएं भी थीं और हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार महिलाओं पर हमला करना पाप है।’’
ये सब पढ़कर बेहद अजीब सा अनुभव हो रहा होगा, आखि़र क्यूं चल रहा था ये मुकदमा? कौन था ये युवक जो अकेला अंग्रेजों से उन्हीं के देष की अदालत में संघड्र्ढ कर रहा था? बचाव पक्ष का वकील क्यूं नही था? जबकि अंग्रेजी कानूून और इंसाफ की आज भी मिसालें दी जाती हैं?
रौलेट एक्ट मार्च 1919 यह भारतीयों के विरूद्ध एक ऐसा कानून था जिसके तहत किसी भी भारतीय पर किसी भी भारतीय न्यायालय में मुकदमा चलाया जा सकता था और उसे बिना कोई दण्ड दिए जेल में भी बंद रखा जा सकता था। इस एक्ट या कानून के विरोध में महात्मा गांधी ने व्यापक हड़ताल का आõान तो किया ही साथ ही देषव्यापी हड़तालें, जुलूस एवं प्रदर्षन भी होने लगे। इतने कड़े विरोध के बाद भी अमृतसर के दो देषभक्त डा0 सैफुद्दीन किचलू जो कि एक मुस्लिम अधिवक्ता थे और राजनीतिक बदलाव के बारे में जनसभाएं किया करते थे जिससे जनजागरण तो हो ही रहा था और साथ ही शान्त रूप से लोगों के भीतर क्रान्ति की भावना भी बलवती हो रही थी और दूसरे डा0 सत्यपाल जो प्रथम विष्व युद्ध के दौरान सैन्य चिकित्सा सेवा अधिकारी थे और उन्हें अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन के तहत जनता में उत्तेजनापूर्ण भाड्ढण देने से रोकना अंग्रेजी हुकूमत की प्राथमिकता बन गई थी इन दोनों की गिरफ्तारी भी इसी कानून के तहत हो गई। इन दोनों की रिहाई के लिए पंजाब की जनता ने विरोध प्रदर्षन तो किए ही साथ ही महात्मा गांधी की हिंसात्मक गतिविधियों के प्रति असहमति के बावजूद इस भीड़ ने इन्हीं गिरफ्तारियों और रोलेट एक्ट के विरोध में एक अहिंसात्मक जनसभा के लिए उस दिन का चुनाव हुआ यानि 13 अप्रैल 1919 जलियांवाला बाग ...इसकी बनावट कुछ ऐसी थी 6 से 7 एकड़ का क्षेत्र यानि लगभग 28000 वर्ग मीटर इसमें पांच प्रवेष द्वारों के अलावा बाकी चारों तरफ ऊंची दीवारें थीं, चार प्रवेष द्वारा बेहद संकरे थे जिनमें से एक वक्त में कुछ ही लोग एक साथ या तो बाहर जा सकते थे या बाहर से आ सकते थे, पांचवा मार्ग हथियारों से लैस सैनिकों द्वारा बन्द कर दिष गया था। दो हथियारबन्द गाडि़यां जो मषीनगन से लदी हुई थीं उन्हें मार्ग संकरा होने के कारण भीतर नही लाया जा सका था, और उन्हें लाने की कोषिष में रास्ता पूरी तरह जाम हो गया था। चारों तरफ ऊंची दीवारों से घिरा ये स्थान जनसभाओं के लिए एक सार्वजनिक और सुविधाजनक स्थान था। यहां पर आजादी के षहीदों को श्रद्धान्जली अर्पित करने और अहिंसा के सर्मथन में षान्तिसभा के लिए उस षाम सैंकड़ों लोग एकत्रित हुए थे, इनमें युवाओं के अलावा औरतें, वृद्धजन, बच्चे भी षामिल थे। कोई सोच भी नही सकता था कि अभी थोड़ी ही देर में क्या कुछ होने वाला है। वो दिन बैसाखी का था और दूसरे दिनों के अनुपात में वहां भीड़ कुछ ज्यादा थी और शान्ति सभा के नाते केवल स्थानीय नेता ही भीड़ को संबोधित कर रहे थे। वहां जमा हजारों लोगों में उत्साह तो था पर किसी प्रकार की उत्तेजना नही थी।
ब्रिगेडियर जनरल डायर ने अपने 90 सैनिकों सहित उस स्थान को घेर लिया जिनमेें प्रथम/नवीं 25 गोरखा राईफल, 25 पठान और बलूच जो 54वीं सिख और 59वीं सिंध राईफल से थे, इन सबके पास 303 ली-एनफील्ड राईफलें थी और स्वाभाविक रूप से गोरखा राईफल के जवानों अपनी चिरपरिचित हथियार खुखरी से लैस थे। डायर ने अपनी टूटी फूटी भाड्ढा में एक छोटी सी चेतावनी दी... "You people know well that I am a Sepoy and soldier. Do you want war or peace? If you wish for a war, the Government is prepared for it, and if you want peace, then obey my orders and open all your shops; else I will shoot. For me the battle-field of France or Amritsar is the same. I am a military man and I will go straight. Neither shall I move to the right nor to the left. Speak up, if you want war? In case there is to be peace, my order is to open all shops at once. You people talk against the Government and persons educated in Germany and Bengal talk sedition. I shall report all these. Obey my orders. I do not wish to have anything else. I have served in the military for over 30 years. I understand the Indian Sepoy and Sikh people very well. You will have to obey my orders and observe peace. Otherwise the shops will be opened by force and Rifles. You will have to report to me of the Badmash. I will shoot them. Obey my orders and open shops. Speak up if you want war? You have committed a bad act in killing the English. The revenge will be taken upon you and upon your children." (तुम लोग बहुत अच्छे से जानते हो कि मैं एक सिपाही हूं। तुम्हे शान्ति चाहिए या युद्ध? अगर तुम्हें युद्ध चाहिए तो सरकार इसके लिए तैयार है, अगर शान्ति चाहिए तो मेरी आज्ञा का पालन करो और बाजार खोल दो वरना मैं गोली मार दूंगा। मैं दाएं बांए करने वालों में से नही हूं। बोलो अगर तुम्हे युद्ध चाहिए? शान्ति की मांग है तो सारी दुकाने खोलो अभी। तुम लोग सरकार के विरूद्ध बोलते हो...मैं इसकी रिपोर्ट करूंगा। मेरी आज्ञा का पालन करो, मुझे और कुछ नही चाहिए। तुम्हे मेरी आज्ञा माननी होगी और शान्ति का ख्याल रखना होगा, वरना राईफल और ताकत के बल पर दुकानें खुलवाई जाएंगी। बोलो तुम्हे शान्ति चाहिए या युद्ध? तुम लोगों ने अंग्रेजों को मारने जैसा बुरा काम किया है। इसका बदला तुमसे और तुम्हारे बच्चों से लिया जाएगा।)
(इसे 14 अप्रैल 1919 को एक दैनिक उर्दू अखबार ने अक्षरषः छापा था) देने के बाद बिना कोई समय दिए अचानक ही सैनिकों को सीधे भीड़ को निषाना बनाकर गोली चलाने के निर्देष दे दिए उन लोगों ने निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाना आरंभ कर दिया और हजारों की भीड़ गोलियों से बचने के लिए प्रवेष द्वारों की तरफ भागने लगी, भीड्ढण भगदड़ मच गई और बन्दूकों ने भागती भीड़ को ही अंधाधुन्ध निषाना बनाना शुरू कर दिया। कुछ लोग दीवार को फांदने की असफल कोषिष में लगे रहे और बुरी तरह गोलियों का षिकार बन गए। भीड़ में शामिल औरतें, बच्चे और वृद्ध जो दीवार पर नही चढ़ सकते थे और न ही दरवाजे की ओर भाग सकते थे उनके पास एक मात्र रास्ता मैदान में स्थित कुंए में छुपना ही बचा था, उनकी सोच थी कि गोलियां चलना बन्द होते ही वो बाहर आ जाएंगे पर एक के बाद एक लोगों का कुएं में छलांग लगाते रहने से कूंआ लाषों से पट गया। सर्वाधिक मर्मान्तक था कि जिन दरवाजों से लोग बाहर को भाग रहे थे गोलियां भी वहीं से बरस रही थीं। यानि मौत से बचने के लिए लोग मौत की तरफ ही भाग रहे थे। इस भगदड़ में सैंकड़ों पैरों तले कुचल दिए गए। जो लोग गोलियों से बचने के लिए जमीन पर लेट गए थे उन्हें भी बर्बरतापूर्वक गोली का षिकार बना डाला गया। गोलियां तब-तक चलती रहीं जब-तक कि 1650 राउंड के गोला-बारूद पूरी तरह खत्म नही हो गए। लगातार 10 मिनट तक गोलियां चलीं। इसी के साथ जनरल डायर के निर्देष भी बराबर सेना को मिल रहे थे कि जहां-जहां भीड़ भागे उसी तरफ निषाना लगाया जाए मानों जंगली जानवरों का षिकार किया जा रहा हो। पहले कुछ सिपाहियों ने राईफल ऊपर को उठाकर हवा में गोली चलाने की कोषिष की जिससे भीड़ को सावधान किया जा सके पर डायर चीखा,‘‘बन्दूकें सीधी करो और इन सालों को भून डालो तुम्हें यहां किसलिए लाया गया है?
इस भीषण नरसंहार के पीछे ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड एडवर्ड हैरी डायर का चेहरा विजयी मुस्कान लिए खड़ा था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 379 लोग मारे गए थे और 1000 से ज्यादा घायल हुए थे जबकि 120 लाषें सिर्फ कूंए से ही निकाली गई थीं। पण्डित मदनमोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे, स्वामी श्रद्धापंद के अनुसार 1500 से ऊपर लोग हताहत हुए थे वहीं अमृतसर के सिविल सर्जन डाॅक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से भी ज्यादा थी। जो भी हो इस काण्ड में मरने वालों की सही संख्या कभी सामने नही आ पाई। स्वर्णमंदिर के पास जलियांवाला बाग का यह सामूहिक नरसंहार सदी का सबसे दुर्दान्त और अमानवीय कृत्य था। पूरे विष्व के सभ्य समाज ने डायर के इस कृत्य की कठोर शब्दों में भर्तस्ना की यहां तक कि इंग्लैण्ड के अखबारों ने इस अमानवीय कत्लेआम को ब्रिटिष हुकूमत के लिए काला दिन बताया। जनरल डायर पर जांच बिठाई गई और उसमें भी जनरल डायर का रवैया बेहद अमानवीय और क्रूर रहा उन्होंने कहा कि अगर हमारे पास और गोलियां बची होती तो हम कुछ राउंड की फायरिंग और करवाते। अंग्रेजी कानून जिसे अपने पे नाज है जनरल डायर को इस भयंकर भूल का उचित दण्ड नही दे पाए जबकि साक्ष्यों की कमी नही थी। उस समय कांग्रेस की गांधीवादी नीति जनरल डायर के इस कदम की निन्दा तो करती थी लेकिन इसकी अनुमति नही देती थी कि अहिंसा का मार्ग छोड़ दिया जाए। गांधी जी की अहिंसावादी नीति का प्रभाव कुछ ऐसा था कि हिंसा के बारे में कोई भी कांग्रसी सोचना भर भी नही चाहता था। जवाहर लाल उस परिस्थिति मेें भी स्वयं पर नियंत्रण बनाए रहे जबकि ट्रेन के एक ही डिब्बे में ऊपर की बर्थ पर स्वयं वे और नीचे की बर्थ पर जनरल डायर यात्रा कर रहे थे, मन में बदला लेने की कठोर भावना जागृत हो जाने पर भी जवाहर ने स्वयं को यह कह कर रोक लिया कि किसी भी प्रकार की हिंसात्मक कार्यवाही समस्त गांधवादी नीति को शर्मसार कर देगी। उधम सिंह जलियांवाला बाग के इस नरसंहार के प्रत्यक्ष दर्षियों में से थे, उस समय उधम सिंह जनसभा में लोगों को पानी पिलाने को काम कर रहे थे। इस सारे घटनाक्रम से उधम सिंह भीतर ही भीतर छटपटाहट और उत्तेजना से भर गए। हिन्दू मुस्लिम एकता की नींव रखने वाले राम मुहम्मद आजाद सिंह ने इस घटना के लिए तत्कालीन पंजाब प्रान्त के गवर्नर माईकल ओ’डवायर को जिम्मेदार ठहराया। 21 वड्र्ढीय इस नवयुवक ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर शपथ ली कि वो इस घटना के जिम्मेदार को जीवित नही छोड़ेगा।
घटना के तुरन्त बाद ही ब्रिगेडियर जनरल डायर पर मुकदमा चला और उसे वापस लंदन भेज दिया गया। उधर पंजाब का गर्वनर जनरल और जलियांवाला बाग काण्ड का मुख्य सूत्रधार माईकल ओ’डवायर भी कुछ अर्से बाद रिटायर होकर लंदन चला गया, और यहां प्रतिषोध की ज्वाला में सुलगते युवा उधम सिंह विदेष जाकर आगे की पढ़ाई करने के बहाने चन्दा करके धन जोड़ते रहे साथ ही उन्होंने चन्द्रषेखर आजाद, राजगुरू, सुखदेव और भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिष हुक्मरानों को ऐसी चोट दी जिसके निषान यूनियन जैक पर दषकों तक नजर आए और आते रहेंगे। 1934 में उधम सिंह लंदन पहुंचे और वहां 9 एल्डर स्ट्रीट पर रहने लगे। वहां यात्रा के उद्देष्य से उन्होंने एक कार और छः गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीदी और माईकल ओ’डवायर को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए उचित समय का इंतजार करने लगे। वह दिन भी आ पहुंचा 13 मार्च 1940 को ‘राॅयल सेन्ट्रल एषियन सोसायटी’ और ‘ईस्ट इण्डिया एसोसिएषन’ के संयुक्त तत्वाधान में लंदन के काॅक्सटन हाॅल में अफगानिस्तान विषय पर एक सभा आयोजित की गई और आखि़रकार नरसंहार का वास्तविक सूत्रधार उधम सिंह को मिल गया। अपनी रिवाल्वर उन्होंने एक मोटी किताब के पन्नो को रिवाल्वर के आकार में काटकर उसमें छिपा ली। उन्होनें बैठक के ठीक बाद दीवार के पीछे मोर्चा संभाला और यहीं उधम सिंह ने माईकल ओ’डवायर को दो गोलियां मारीं, जिससे ओ’डवायर वहीं ढेर हो गया और समस्त विष्व को संदेष दिया कि देष का दुष्मन सात समंदर पार जाकर भी जिन्दा नही बचना चाहिए। उधम सिंह को वहां एक महिला ने पकड़ लिया लेकिनउधम सिंह ने वहां से भागने की कोषिष भी नही की और अपनी गिरफ्तारी दे दी। अमर षहीद उधम सिंह जाति और मजहब की दीवारों को भेदकर भारत की षान की खातिर मर मिटे थे। एक अरसे बाद उजागर हुए दस्तावेजों से पता चला कि जब अदालत में उधम सिंह का नाम पूछा गया तो उन्होंने दहाड़ते हुए जवाब दिया था, ‘‘मेरा नाम राम मुहम्मद सिंह आजाद है। पूरी दुनिया मुझे इसी नाम से जानती है और मुझे इसी नाम से पुकारा जाए।’’ 4 जून 1940 को मुकदमें का फैसला सुनाते हुए उधम सिंह को दोड्ढी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 लंदन के पेंटनविले जेल में शाम को ही उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया। 1974 में ब्रिटेन ने उनके अवषेड्ढ भारत को सौंप दिए। उधम सिंह द्वारा लिखे पत्र या तथ्य एक लम्बे समय तक इतिहासकारों की पहुंच से बाहर रहे, उधम सिंह पर चल रही अदालती कार्यवाही का कभी पता नही चलता यदि उन्होंने अपनी जेलयात्रा के दौरान षिव सिंह जौहल को पत्र न लिखे होते। उधम सिंह के ख़तों से पता चलता है कि वे अत्यंत साहसी और हाजि़रजवाब व्यक्ति थे। एक चिठ्ठी में उन्होंने खुद को सम्राट किंग जार्ज का मेहमान लिखा है और स्वयं को मिले मृत्युदण्ड को ऐसी दुल्हन बताया जिससे वे विवाह करने जा रहे थे। आखि़र तक जि़न्दादिल रह कर मौत को खुषी से गले लगाने की बात भी लिखी है। उधम सिंह ने अदालती कार्यवाही के दौरान अपनी अस्थियों को भारत देष भेजने की मांग रखी थी, जिसे खारिज कर दिया गया, काफी समय बाद तत्कालीन भारत सरकार द्वारा की गई तमाम कोषिषों और पंजाब सरकार की पहल पर सन् 1974 में ब्र्रितानी सरकार ने उधम सिंह की अस्थियां भारत सरकार को सौंप दी।
इसके बाद षहीद मदन लाल धींगरा ने लंदन पहुंचकर कर्जन वायली को गोलियों से छलनी कर दिया, इससे अंग्रजी हुकूमत के हाथ पैर ठण्डे हो गए और भारत से उनके पैर उखड़ने लगे। संभवतः अंग्रजों को एहसास हो चला था कि किसी के घर में घुसने का क्या अंजाम होता है? इन षहीदों की षहादत व्यर्थ नही गई। हजारों देषभक्त षहीदों की कतार लग गई। सबने ठान लिया कि अब इन अंग्रेज कुत्तों को देष में नही रहने देंगे, और आखि़र नोंच खसोट कर टुकड़ों और चिथड़ों में ही सही पर अंग्रेज बचा खुचा देष छोड़कर हमें आजाद करके चले गए... 15 अगस्त सन् 1947 भारत आजाद हो गया। पर किसके लिए ?
उधम सिंह ने माईकल ओ’डवायर को मारकर अपना कर्तव्य निभा दिया। आज फिर उधम सिंह की जरुरत है। कहां से आएगा एक और उधम सिंह?
किसी देष को बर्बाद करना हो तो उसकी रीढ़ या हृदय पर वार करना चाहिए और कौन नही जानता कि देष का हृदय युवा होता है और धन देष की रीढ़ की हड्डी। विदेष में ऐसा भी क्या आकड्र्ढण है जो देष का युवा स्वयं को सस्ते दाम बेच कर भी वहां जाने को तैयार रहता है। अपने अहं, स्वतंत्रता और आत्मसम्मान से समझौता करके विदेष जाकर धन कमाने का नषा नही उतरता। अपने घर का दिया पड़ोस को रोषन करे और अपने ही घर में अन्धेरा रहे तो ऐसे दिए का क्या फायदा? अपने आदर्षों को भूल चुके युवाओं को याद दिलाना होगा उस बलिदान का जो केवल इसलिए दिया गया कि लोग जाने कि कोई भी शत्रु हमें घर घुसकर अपमानित करके यूंही वापस नही जा सकता और यदि वो भाग भी जाता है तो भी उसे खोज कर उसे उसके दुष्कर्मों की उचित सजा दी जाएगी।
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता ऐसा वीजा है कि आज दुनिया के किसी भी कोने से आकर कोई भी सांप बड़े आराम से देष में जहर फैलाकर चला जाता है और हम लकीर पीटते रह जाते हैं। देश में रहने की, व्यापार करने की, घर लेकर बसने की स्वतंत्रता को भारतीय जनतंत्र में गलत परिभाड्ढा दे दी गई, आने वाले विदेषी व्यापारी आज भी सन् 1500 में भारत आए ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारी कैप्टन हाॅकिन्स की तर्ज पर चुपचाप आकर बस जाते हैं उन्हें धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का पता ही नही वे इन सिद्धान्तों को अपनी सुविधानुसार अनुवादित कर लेते हैं। संविधान में किस रूप में इस नियम को महत्व दिया गया है उन्हें इसकी परवाह ही नही। उनसे अन्य देषों की तरह समय पूरा होने के पहले देष छोड़कर चले जाने की सख्ती नही बरती जाती। उनका जी चाहा तो वापस गए, अन्यथा यहीं बस गए। बाहर से आकर यहां बस जाना और नाम बदल कर सुकून से आतंकी नेटवर्क चलाते रहना और तो और यहीं नौकरी कर यहां के धन से अपनी जीविका चलाना। धीरे-धीरे इस देष में रह कर यहां अपनी जड़ंे फैलाकर पूरी तरह यहां बस जाते हैं, एक अद्द मकान, कई एकड़ ज़मीनें, और बड़े पैमाने पर शुरूआती कारोबार करने वाले कैसे यहां की एक विषाल बहुराष्ट्रीय सौदे में तब्दील हो जाते हैं और हमारे ही देष की युवापीढ़ी और बेरोजगार नौजवानों को नौकरी देने के बहाने उनसे मनचाहा काम लेने लगते हैं। विदेषी कम्पनी के नाम और विदेष के लालच में आज का युवा किसी सम्मानित सरकारी नौकरी से कहीं ज्यादा महत्व विदेषी कम्पनी के छोटे पद और सस्ते काम को देता है क्योंकि उसे पैसा चाहिए। देष का भविष्य या अपनी मान मर्यादा दांव पे लगा देना उसके लिए कोई बड़ी बात नही है।
विदेषी कम्पनियां देष की युवा पीढ़ी का भविष्य दीमक की तरह चाट रही हैं। आज काॅल सेन्टर जैसा डिप्रेषन की बीमारी पैदा करने वाला कोई भी कारोबार चलाने के लिए भारत से बंधुवा मजदूर यानि भारतीय युवा लड़के-लड़कियां बुलाए जाते हैं, मुंह-मांगे दामों पर रात-दिन काम करने वाले ये युवा पैसा तो कमा लेते हैं पर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं पैसा तो आता है पर उसे खर्च करने के लिए स्वस्थ्य शरीर नही रह जाता।
कहां तो बात होती है देष के प्रति निष्ठा या समर्पण भावना की और कहां हम पुनः उनके फेंके टुकड़ों पर पलने का मन बनाने में लगे हैं इतने अपमान के बाद भी देष का युवा पढ़ाई के तुरन्त बाद विदेष यात्रा के लिए धन जुटाने लगता है। इस तरह से युवा पीढ़ी का विदेष के प्रति आकड्र्ढण देष की अस्मिता को बाहर से नष्ट कर रहा है और सत्ता एवं धनलोलप राजनीतिज्ञ देष की दलाली करके इसे भीतर से खोखला कर रहे हैं। भारतवड्र्ढ का दुर्भाग्य ही तो है जो अंग्रजों विदेषियों से तो इसे मुक्ति मिल गई परन्तु अब अपने घर के लोग ही इसे तबाह करने पर तुले हुए हैं। अब तो जनरल डायर से भी अधिक खूंखार, रक्त पिपासु और बर्बर लुटेरों ने देष पर कब्जा कर लिया है। इन देषी कुत्तों से देष कैसे मुक्त होगा...? गोरे कुत्तों की जगह भूरे काले कुत्तों ने ले ली है जो अंग्रेज सरकार के बचे छीछड़ों को चबा रहे हैं। विदेषियों की छोडि़ये उन घर-षत्रु विभीषणों को कौन समझाए जो जिस थाली में खाते हैं उसी में छेंद करते हैं। देष की छटपटाहट और बेचैनी का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि उसे न गैरों से समर्थन है न अपनों से आराम। सारे देष को अन्दर बाहर दोनों ओर से जो भीषण प्रताड़ना दी जा रही है न जाने इसका क्या परिणाम होगा? ऐसे में कहां है एक और उधम सिंह?
इसके बाद षहीद मदन लाल धींगरा ने लंदन पहुंचकर कर्जन वायली को गोलियों से छलनी कर दिया, इससे अंग्रजी हुकूमत के हाथ पैर ठण्डे हो गए और भारत से उनके पैर उखड़ने लगे। संभवतः अंग्रजों को एहसास हो चला था कि किसी के घर में घुसने का क्या अंजाम होता है? इन षहीदों की षहादत व्यर्थ नही गई। हजारों देषभक्त षहीदों की कतार लग गई। सबने ठान लिया कि अब इन अंग्रेज कुत्तों को देष में नही रहने देंगे, और आखि़र नोंच खसोट कर टुकड़ों और चिथड़ों में ही सही पर अंग्रेज बचा खुचा देष छोड़कर हमें आजाद करके चले गए... 15 अगस्त सन् 1947 भारत आजाद हो गया। पर किसके लिए ?
उधम सिंह ने माईकल ओ’डवायर को मारकर अपना कर्तव्य निभा दिया। आज फिर उधम सिंह की जरुरत है। कहां से आएगा एक और उधम सिंह?
किसी देष को बर्बाद करना हो तो उसकी रीढ़ या हृदय पर वार करना चाहिए और कौन नही जानता कि देष का हृदय युवा होता है और धन देष की रीढ़ की हड्डी। विदेष में ऐसा भी क्या आकड्र्ढण है जो देष का युवा स्वयं को सस्ते दाम बेच कर भी वहां जाने को तैयार रहता है। अपने अहं, स्वतंत्रता और आत्मसम्मान से समझौता करके विदेष जाकर धन कमाने का नषा नही उतरता। अपने घर का दिया पड़ोस को रोषन करे और अपने ही घर में अन्धेरा रहे तो ऐसे दिए का क्या फायदा? अपने आदर्षों को भूल चुके युवाओं को याद दिलाना होगा उस बलिदान का जो केवल इसलिए दिया गया कि लोग जाने कि कोई भी शत्रु हमें घर घुसकर अपमानित करके यूंही वापस नही जा सकता और यदि वो भाग भी जाता है तो भी उसे खोज कर उसे उसके दुष्कर्मों की उचित सजा दी जाएगी।
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता ऐसा वीजा है कि आज दुनिया के किसी भी कोने से आकर कोई भी सांप बड़े आराम से देष में जहर फैलाकर चला जाता है और हम लकीर पीटते रह जाते हैं। देश में रहने की, व्यापार करने की, घर लेकर बसने की स्वतंत्रता को भारतीय जनतंत्र में गलत परिभाड्ढा दे दी गई, आने वाले विदेषी व्यापारी आज भी सन् 1500 में भारत आए ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारी कैप्टन हाॅकिन्स की तर्ज पर चुपचाप आकर बस जाते हैं उन्हें धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का पता ही नही वे इन सिद्धान्तों को अपनी सुविधानुसार अनुवादित कर लेते हैं। संविधान में किस रूप में इस नियम को महत्व दिया गया है उन्हें इसकी परवाह ही नही। उनसे अन्य देषों की तरह समय पूरा होने के पहले देष छोड़कर चले जाने की सख्ती नही बरती जाती। उनका जी चाहा तो वापस गए, अन्यथा यहीं बस गए। बाहर से आकर यहां बस जाना और नाम बदल कर सुकून से आतंकी नेटवर्क चलाते रहना और तो और यहीं नौकरी कर यहां के धन से अपनी जीविका चलाना। धीरे-धीरे इस देष में रह कर यहां अपनी जड़ंे फैलाकर पूरी तरह यहां बस जाते हैं, एक अद्द मकान, कई एकड़ ज़मीनें, और बड़े पैमाने पर शुरूआती कारोबार करने वाले कैसे यहां की एक विषाल बहुराष्ट्रीय सौदे में तब्दील हो जाते हैं और हमारे ही देष की युवापीढ़ी और बेरोजगार नौजवानों को नौकरी देने के बहाने उनसे मनचाहा काम लेने लगते हैं। विदेषी कम्पनी के नाम और विदेष के लालच में आज का युवा किसी सम्मानित सरकारी नौकरी से कहीं ज्यादा महत्व विदेषी कम्पनी के छोटे पद और सस्ते काम को देता है क्योंकि उसे पैसा चाहिए। देष का भविष्य या अपनी मान मर्यादा दांव पे लगा देना उसके लिए कोई बड़ी बात नही है।
विदेषी कम्पनियां देष की युवा पीढ़ी का भविष्य दीमक की तरह चाट रही हैं। आज काॅल सेन्टर जैसा डिप्रेषन की बीमारी पैदा करने वाला कोई भी कारोबार चलाने के लिए भारत से बंधुवा मजदूर यानि भारतीय युवा लड़के-लड़कियां बुलाए जाते हैं, मुंह-मांगे दामों पर रात-दिन काम करने वाले ये युवा पैसा तो कमा लेते हैं पर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं पैसा तो आता है पर उसे खर्च करने के लिए स्वस्थ्य शरीर नही रह जाता।
कहां तो बात होती है देष के प्रति निष्ठा या समर्पण भावना की और कहां हम पुनः उनके फेंके टुकड़ों पर पलने का मन बनाने में लगे हैं इतने अपमान के बाद भी देष का युवा पढ़ाई के तुरन्त बाद विदेष यात्रा के लिए धन जुटाने लगता है। इस तरह से युवा पीढ़ी का विदेष के प्रति आकड्र्ढण देष की अस्मिता को बाहर से नष्ट कर रहा है और सत्ता एवं धनलोलप राजनीतिज्ञ देष की दलाली करके इसे भीतर से खोखला कर रहे हैं। भारतवड्र्ढ का दुर्भाग्य ही तो है जो अंग्रजों विदेषियों से तो इसे मुक्ति मिल गई परन्तु अब अपने घर के लोग ही इसे तबाह करने पर तुले हुए हैं। अब तो जनरल डायर से भी अधिक खूंखार, रक्त पिपासु और बर्बर लुटेरों ने देष पर कब्जा कर लिया है। इन देषी कुत्तों से देष कैसे मुक्त होगा...? गोरे कुत्तों की जगह भूरे काले कुत्तों ने ले ली है जो अंग्रेज सरकार के बचे छीछड़ों को चबा रहे हैं। विदेषियों की छोडि़ये उन घर-षत्रु विभीषणों को कौन समझाए जो जिस थाली में खाते हैं उसी में छेंद करते हैं। देष की छटपटाहट और बेचैनी का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि उसे न गैरों से समर्थन है न अपनों से आराम। सारे देष को अन्दर बाहर दोनों ओर से जो भीषण प्रताड़ना दी जा रही है न जाने इसका क्या परिणाम होगा? ऐसे में कहां है एक और उधम सिंह?
Jaliyaan wala Bagh |
उधम सिंह का वास्तविक नाम शेर सिंह था, उनका जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था। उधम सिंह के बड़े भाई का नाम मुक्ता सिंह था। 1901 में उधम सिंह की माता और 1907 में उधम सिंह के पिता के देहान्त के बाद दोनों भाईयों का शेड्ढ बचपन अमृतसर के खालसा अनाथालय में व्यतीत हुआ। अनाथालय में दोनों भाईयों को उधम सिंह और उसके विपरीत साधुसिंह के नए नामों से पुकारा जाता था। वजह साफ थी उधम बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थें जबकि उनके बड़े भाई शान्त स्वभाव के व्यक्ति थे। दुर्भाग्यवष 1917 में किन्ही कारणों से उधम सिंह के बड़े भाई मुक्ता सिंह उर्फ साधु सिंह का भी देहान्त हो गया। अब उधम पूरी तरह अनाथ हो गए परन्तु उनका स्वभाव एक सा ही रहा, गलत को गलत कहना यदि विद्रोह है तो उधम सदैव ही ऐसे विद्रोह और संघड्र्ढ में लगे रहे। उधम सिंह उदार स्वभाव के और सभी धर्मों में विष्वास रखने वाले व्यक्तियों में से एक थे। इसी भावना के चलते उन्होंने आगे चलकर अपना नाम राम मुहम्मद सिंह आजाद रख लिया जो देष के तीन बड़े धर्मों का प्रतीक भी है। जल्द ही उधम सिंह ने अनाथालय छोड़ा और क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। भारत की आजादी की लड़ाई में पंजाब के क्रान्तिकारी सरदार उधम सिंह का नाम अमर है।
ऽ ऐसी धारणा है कि उधम सिंह ने जनरल डायर को गोली मारी जिसने सैन्य बल ले जाकर जलियांवाला बाग में लोगों की हत्या की थी परन्तु वास्तविकता में उन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के वास्तविक उत्तरदायी पंजाब के तत्कालीन गर्वनर जनरल माईकल ओ’डवायर को गोलियों से भून डाला था जिसने जनरल डायर को इस नरसंहार का आदेष दिया था असल में बिना गर्वनरी आदेष के जनरल डायर काई कदम उठा ही नही सकता था।
ऽ दूसरी तरफ सैंकड़ों हत्याओं का दोड्ढ और मासूमों की लानत का बोझ लिए जनरल डायर लम्बे समय तक बीमारियों से घिरा रहा और उसे लकवा भी मार गया था, कहा जाता है कि अपने अन्त समय में डायर को अपनों ने भी नही पूछा।
ऽ उसके द्वारा हुए नरसंहार की बदनामी के चर्चे जीवन भर उसका पीछा करते रहे। ब्रिटेन में भी स्थानीय संगठनों जैसे लेबर पार्टी ने उसके इस कृत्य को क्रूर और बर्बर मानसिकता का लक्षण बताया।
ऽ भारत में राज्य सचिव श्री माॅन्टेग्यू नेे अंग्रेजी कानून पर उंगली उठाते हुए कहा कि अंग्रेजी कानून में ही खोट है।
ऽ राज्य सचिव युद्धकाल प्रसिद्ध व्यक्तित्व विन्सटन चर्चिल ने ब्रिटिष पार्लियामेंट के हाउस आॅफ काॅमन्स में चल रही अपनी बहस में कहा कि
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Udham singh |
“an
episode without precedent or parallel in the modern history of British
Empire…an extraordinary event, a monstrous event, an event which stands in
singular and sinister isolation.”‘‘ऐसी घटना जो पहले कभी नही घटी और आधुनिक ब्रिटिष साम्राज्य के इतिहास में ऐसा नही हुआ, एक असाधारण घटना, एक अमानुषिक घटना और एक ऐसी घटना जो स्वयं में इकलौती है और बुरी घटनाओं में अतुलनीय है’’
ऽ भारत में महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने उधम सिंह द्वारा उठाए गए इस हिंसात्मक कदम की निन्दा की और इसे अमानवीय बदले की भावना कहा कारण उन दिनों राजनीतिक उठापटक तेजी पर था और छल बल कौषल जैसे भी हो बापू और उनके साथी अंग्रेजों को अहिंसा और असहयोग के बलबूते देष छोड़ने की कगार तक ले आए थे ऐसे में उधम सिंह का ये कदम कहीं उनके किए कराए पर पानी न फेर दे इस भावना से बापू और जवाहर ने माईकल ओ’डवायर की हत्या की निन्दा की परन्तु उधम सिंह को फांसी होने की खबर आते ही जवाहर लाल नेहरू दैनिक प्रताप में अपना बयान बदलकर अपनी दबी हुई भावना और अंग्रेजों के विरूद्ध अपनी भारतीयता और देषभक्ति का परिचय देते हुए बोले, मैं शहीद-ए-आजम उधम सिंह को सम्मान सहित सलाम करता हूं, जिन्होंने फांसी के फंदे को चूम लिया ताकि हम आजाद रह सके।
ऽ अमृतसर नरसंहार के बाद डायर की सेहत बेहद गिर गई 1921 में उसे लकवा मार गया और वह फिर कभी स्वस्थ्य नही हो सका। उसकी मृत्यु ब्रिस्टन के निकट लाॅन्ग एष्टन में 23 जुलाई 1927 एथेरोसक्लेरोसिस और सेलेब्रल हेमरेज जैसी बीमारियों के चलते हुई।
ऽ अपने आखि़री समय में मेजर डायर ने जो शब्द कहे थे,
ऽ भारत में महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने उधम सिंह द्वारा उठाए गए इस हिंसात्मक कदम की निन्दा की और इसे अमानवीय बदले की भावना कहा कारण उन दिनों राजनीतिक उठापटक तेजी पर था और छल बल कौषल जैसे भी हो बापू और उनके साथी अंग्रेजों को अहिंसा और असहयोग के बलबूते देष छोड़ने की कगार तक ले आए थे ऐसे में उधम सिंह का ये कदम कहीं उनके किए कराए पर पानी न फेर दे इस भावना से बापू और जवाहर ने माईकल ओ’डवायर की हत्या की निन्दा की परन्तु उधम सिंह को फांसी होने की खबर आते ही जवाहर लाल नेहरू दैनिक प्रताप में अपना बयान बदलकर अपनी दबी हुई भावना और अंग्रेजों के विरूद्ध अपनी भारतीयता और देषभक्ति का परिचय देते हुए बोले, मैं शहीद-ए-आजम उधम सिंह को सम्मान सहित सलाम करता हूं, जिन्होंने फांसी के फंदे को चूम लिया ताकि हम आजाद रह सके।
ऽ अमृतसर नरसंहार के बाद डायर की सेहत बेहद गिर गई 1921 में उसे लकवा मार गया और वह फिर कभी स्वस्थ्य नही हो सका। उसकी मृत्यु ब्रिस्टन के निकट लाॅन्ग एष्टन में 23 जुलाई 1927 एथेरोसक्लेरोसिस और सेलेब्रल हेमरेज जैसी बीमारियों के चलते हुई।
ऽ अपने आखि़री समय में मेजर डायर ने जो शब्द कहे थे,
“But I don’t want to get better. Some
say I did right, while other say I did wrong. I only want to die…and know
of my maker whether I did right or wrong.लेकिन मैं अच्छा नही होना चाहता। कुछ कहते हैं मैंने ठीक किया, जबकि दूसरे कहते हैं मैंने गलत किया। मैं सिर्फ मरना चाहता हूं...और अपने बनाने वाले से जानना चाहता हूं कि मैंने सही किया या ग़लत।
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