हमें अच्छा लगता है जब दूसरों के मामले को लेकर हमारे पेट में दर्द होता है। आखि़र हम मीडिया वाले जो हैं। विवादित जोड़े और मीडिया वालों में काफी समानता दिखाई देती है। कारण दूसरे निजी जीवन में क्या कर रहे हैं इससे हमारा पेट दुखता है और हम चाहते हैं जब हम कुछ करें तो सबका पेट दुखे। जनता भी कम समझदार नही है, किसी को ज़ुकाम है तो पहले मीडिया के पास जाता है फिर डाक्टर के पास, किसी का अपने पति से झगड़ा हो गया तो पहले मीडिया के पास फिर वकी़ल के पास, घर में चोरी हो जाए तो पहले मीडिया के पास फिर पुलिस के पास और नई खोज के अनुसार अब मीडिया सास-बहू के झगड़े भी निबटाएगी। पति-पत्नी के बीच षास्त्रों के अनुसार किसी को भी मध्यस्थता करने का अधिकार नही है,उनकी संतान तक इसकी अधिकारी नही होती परन्तु अब नवीन षास्त्रों के अनुसार मीडिया के हस्तक्षेप के बिना किसी भी घर का झगड़ा नही निबट सकता। भाई-बहन में भी निबटारा अब मीडिया ही करवाएगी। भले ही वे 5 वर्ष के हों या 50 वर्ष के, अपहरण का मामला हुआ तो पहले मीडिया फिर पुलिस। मैं इसके पक्ष में तो हूं कि हमारे देष की संपूर्ण प्रषासनिक एवं कानूनी व्यवस्था में पत्रकारिता एक महत्वपूर्ण स्तंभ के समान है और वास्तविकता भी यही है कि मीडिया देष के लोकतंत्र का चैथा स्तंभ है। प्रषासन के बहरेपन के खिलाफ मीडिया बोले तो यह सर्वथा उचित है परन्तु यह जनता एवं प्रषासन के मध्य दलाली का काम करे यह कदापि उचित नही है, मीडिया आवाज़ पहुंचाने का ज़रिया बने और शेष कानून को करने दे। यह मीडिया का कौन सा नया रूप है कि वह हर जगह डण्डा लेकर मामलों का निबटारा करने पहुंच जाती है? निर्णय देना मीडिया का नही कानून का काम है। हम घर की दहलीज़ के भीतर रहने वाली बातों को संसार भर के सामने तमाषा बना देते हैं, बदले में सारी दुनिया के सामने हमारा तमाषा बनाकर अपनी टी.आर.पी रेटिंग बढ़वा ली जाती है। पटना से एक छोटे बच्चे का अपहरण हो गया। उसके पिता के अनुसार पुलिस ने पहले रिर्पोट दर्ज नही की फिर की भी तो कार्यवाही नही कर रही है। उस समय के एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त न्यूज़ चैनल के ज़रिए अपनी बात पुलिस में डी.आई.जी तक पहुंचाने से परिणाम यह हुआ कि डी.आई.जी साहब ने घटना सुनना तो दूर चैनल वालों को ही चार बातें सुनाकर फोन काट दिया। अपहरण की बात तो अधर में रही और पुलिस-मीडिया के बीच शीत-युद्ध का नंगा प्रर्दषन अवष्य हो गया।
एक अन्य पहलू पर नजर डालकर देखते हैं, समझ में यह नही आता कि पुलिस मीडिया के लिए कहानियां छोड़ती ही क्यूं है? ऐसे मामले जहां हत्या बलात्कार और अपहरण जैसी घटनाएं हों वहां पुलिस फौरन ही अपने कर्तव्य क्यूं नही निभाती? जब पुलिस ही पीछे हट जाती है तो जनता अपने स्वयं के नियम का़नून बनाएगी ही और उसमें मीडिया का सर्वोपरि होना स्वाभाविक है कारण मीडिया की छवि आज भी उसी प्रथम जनक्रान्ति के रूप में है जिसने हस्तलिखित पृष्ठ द्वारा जन-जन तक एक दूसरे के विचारों को पहुंचाने का बीड़ा उठाया था। वो प्रिंट मीडिया ही था जिसकी बनाई छवि को आज इलेक्ट्रानिक मीडिया विभत्स रूप से भुना रहा है,संभवतः मीडियाबंधू जोरदार,मसालेदार और ब्रेकिंग न्यूज़ के पीछे भागते-भागते भूल गए हैं कि मीडिया मात्र माध्यम है ना कि निर्णयकर्ता या निर्णायक।
इस बात से इन्कार नही किया जा सकता है कि आज मीडिया है तो दैनिक जीवन काफी सुविधाजनक है। रोजाना की सामान्य दिनचर्या में यदि कुछ ऊंच-नीच हो जाए तो और कोई सहाय हो न हो पर ईष्वर के अलावा मीडिया ज़रुर आपके साथ होती है और जहां तक हो सके मामले को सुलझाने में आपकी सहायता भी करती है। लेकिन क्या सभी मीडिया संबंधित व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं। लगभग हर रोज कहीं ना कहीं एक नई घटना का सूत्रपात होता ही रहता है, परन्तु इसका यह मतलब तो नही कि प्रत्येक घटना की आंखो देखी स्थिति का सीधा प्रसारण किया जा सके। लेकिन मीडियावालों के बीच छिड़े लोकप्रियता पाने के युद्ध में मीडिया की मानवता पीछे छूट गई है। कैमरा लिए दिनभर शहर का चक्कर काटते नए पत्रकार केवल सनसनी की खोज में कुछ भी कर गुजरने पर आमादा रहते हैं। वे बिना आज्ञा किसी के दफ्तर अथवा घर कहीं भी पहुंच जाते हैं केवल इसलिए कि आस-पास के इलाके में सनसनी फैल जाए और कोई खास खबर न भी मिले तो कम से कम सस्ती लोकप्रियता का मौका न छूटने पाए। जबतक मीडिया की कार्यवाही लोकहित तक सीमित रहें प्रिय मालूम होती है और जब यह कार्य केवल अपने समाचार चैनल की टीआरपी रेटिंग के हित में किया जा रहा हो तो यह किसी अपराध से कम नही लगता।
लखऩऊ का लालबाग व्यापारिक क्षेत्र दोपहर के करीब 2 बजे का समय, अचानक शोर गुल के कारण जून की दोपहर का गर्म सन्नाटे से भरा माहौल चहल पहल से भर उठता है। दो व्यक्ति भयंकर गाली गलौज करते हुए सड़क पर एक दूसरे को धकियाते हुए ले आते हैं। उनके आस पास भीड़ जमा हो चुकी है। पास पड़ोस के अलसाए दुकानदार इससे पहले कि कुछ समझ पाएं पास खड़ी कार का शीषा झनझनाहट की तेज आवाज के साथ टूट कर बिखर जाता है। संभवतः दोनो के झगड़े के मध्य किसी शरारती ने काम दिखा दिया था। बात भले ही मामूली रही हो पर इस घटना के चलते मामला गंभीर हो गया। जिसकी कार थी अब उसकी बारी थी। कार का भुक्तभोगी मालिक मजबूत व्यक्ति था अपने सहयोगियों के साथ आकर उसने दोनांे को बुरी तरह मारना-पीटना शुरु कर दिया। जो बचाने आए थे छोड़कर भाग गए। अब पुलिस का मामला बन चुका था, पर पुलिस को कोई नही बुलाता। इसी बीच एक न्यूज चैनल की गाड़ी वहां आ पहुंचती है। बेहद मामूली आपसी झड़प जिसमें कोई घायल नही हुआ। इस घटना में ऐसा कुछ नही था जिसे उभारा जाता पर कारीगर की कारीगरी देखिए...फौरन ही उन दोनों मार खाए लोगों को बुलवाया गया और उन्हें उकसाकर दोबारा हाथापाई की नौबत पैदा कर दी गई। इस बार झगड़ा पहले से ज्यादा भड़क गया। यह सब कुछ पुलिस के घटनास्थल पर आने तक शूट किया जाता रहा। पुलिस के आते ही मामले को असाम्प्रदायिक तत्वों द्वारा मचाया गया उत्पात बताया गया। शीघ्र ही घबरायी पुलिस ने दोनों को मारपीट कर पूछताछ आरंभ कर दी और उन्हें पूरी रात बिना कारण ही जेल में सड़ाया गया। साफ समझ में आ रहा है कि पूरे दिन खोजने पर भी जब कोई खास मसाला हाथ नही लगा तो मीडिया के इन सड़कछाप लोगों ने जो एक प्लास्टिक के टुकड़े का परिचय-पत्र और हाथ में माईक कैमरा थाम कर स्वयं को समाज का ठेकेदार कहने लगते हैं वे सीधे-सीधे कानून को हाथ में लेने को तैयार हो गए। ऐसे लोगों को गैरजिम्मेदार नागरिक कहें या असामाजिक तत्व? ऐसी मीडिया की किसे जरूरत है?
कुछ खास चैनलों पर तो दिनभर केवल आने वाले प्रलय से डराया जाता है या फिर सीधे स्वर्ग का मार्ग ही दिखा दिया जाता है मानों यदि आप अपने दैनिक जीवन से असहज हों तो तुरन्त सषरीर स्वर्ग यात्रा पर निकल पडि़ए। इस वैज्ञानिक युग में जब देष को अंधकार से भरी दुनिया में रोषनी की खोज है तब टी.वी चैनलों पर भूतों की तस्वीरें दिखाकर मीडिया क्या साबित करना चाहती है। परीकथाएं और सास-बहू के रोने धोने के प्रसंग दिखाने के लिए क्या अन्य चैनल कम पड़ गए हैं जो न्यूज़ चैनल भी इस दौड़ में हिस्सा लेने लगे हैं। तंत्र-मंत्र, अंधविष्वास इस सबसे तो मीडिया का कभी कोई संबंध नही था वरन कभी ऐसे मामलों में लोगों को फंसा कर जब उनके साथ हुई धोखाधड़ी की घटनाएं सामने आती हों तब अवष्य दूसरों को सावधान करने हेतु मीडिया का आगे आना देखा जाता रहा है। हर वस्तु में मिलावट है, बंधागोभी,पालक और साग में कीड़े हैं, बैंगन,परवल,भिन्डी और लोभिया में रंग है, दूध में ज़हर है, घी में चर्बी है, आटे में पाउडर है मतलब अब आप भोजन करना छोड़ दीजिए और जो वस्तु न्यूज़ चैनलों पर विज्ञापित की जाएं केवल उन्हें ही खाएं। कारण जिन वस्तुओं का भारी भरकम रकम वाला विज्ञापन चैनल को मिलेगा निष्चित ही वह वस्तु आपके लिए शुद्ध हो जाएगी।
दुर्घटनाओं का रस लेकर पूरे दिन एक ही खबर को घिसते रहना दर्षाता है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में कर्मठ एवं खोजी स्वभाव के पत्रकारों की कितनी किल्लत हो गई है। तरह-तरह के एनीमेषन्स द्वारा आत्महत्याओं, सड़क अथवा हवाई दुर्घटनाओं, हत्यओं को यह कह कर दिखाना कि ‘‘असलियत हम बताते हैं कि वास्तव में फलां काण्ड हुआ कैसे?’’ देखा जाए तो पुलिस प्रषासन एवं कानून व्यवस्था को तुरन्त ही ऐसी रिर्पोट देने वाले पत्रकारों से पूछना चाहिए कि हमसे पहले घटनास्थल पर तुम पहुंचे और हमसे ज्यादा घटनाओं के विषय में तुम्हें पता है कहीं तुम ही तो इसके प्रमुख सूत्रधार नही हो परन्तु ऐसा नही हो पाता कारण मीडिया के बढ़ते रसूख शासन एवं अधिकारियों में मीडियाकर्मियों की घुसपैठ और पहुंच साथ ही व्यक्तिगत रूप में लाईसेन्सी पिस्तौलधारी माफिया स्वरुप मीडियावालों के मुंह लगने से तो पुलिस भी भय खाती है। पुलिस संभवतः यह समझने लगी है कि जो कार्य वह वर्दी में करती है मीडियावाले उसी कार्य को बगैर वर्दी के करने में सर्मथ हैं और शासन व्यवस्था भी इनके साथ है। सचिवालय का प्रवेष पत्र गाड़ी पर चिपका हो तो बिना चुनाव लड़े साधारण मीडियाकर्मी स्वयं को नेता से कम नही मानता वाहन सहित लालबत्ती का रस्ता काटकर सचिवालय में प्रवेष न कर सके ऐसा पत्रकार किस काम का,हर नेता के घर में बैठक हर राजनीतिक दल के दफ्तर में घुसपैठ, नियम तोड़ कर भी झगड़े को आमादा पत्रकार अपनी परिभाषा भूलता जा रहा है। नई पीढ़ी के पत्रकार भी गुण्डागर्दी को पत्रकारिता मानने लगे हैं। ऐसे में आम जनता भी अपनी पहचान बनाने के लिए बड़े वाहनों पर प्रेस चिपका कर घूमने को अपनी शान मानने लगी है क्यूंकि डर कर इनसे कोई प्रेस का परिचय पत्र भी नही मांगता। अपराध को इससे बढ़ावा तो मिला ही है और अधिकांषतः प्रेस की चिपकियों से सजी गाडि़यों में ही पापकर्म होने लगे हैं, वाहनों में ही शराब की महफिलें भी सजती हैं और बड़े-बड़े सौदे भी किए जाते हैं अर्थात करे कोई और भरे कोई।
इस सबका इलाज तो तभी हो सकेगा जब मीडिया स्वयं कानून और नियमों के समक्ष आत्मसर्मपण करेगी। जब मीडियाकर्मी सर्वाधिक कानून का पालन करने वाले लोगों में से होंगे जब पे्रस वाले पार्किंग का पैसा भरने लगेंगे, जब पार्किंग निषेध से उठने वाली गाडि़यों में प्रेस की गाडि़यां नही होगी। जब नेता स्वयं चलकर प्रेस वालों को निवेदन कर अपनी सभाओं और पार्टियों में बुलाने आएंगे बजाए इसके कि एक फोन पर प्रेस वालों की कतारें बैण्डबाजे वालों से पहले पहुंच कर मुफ्त के खाने पीने को नही खड़ी हो जाया करेंगी। वेतन कम मिलने पर ब्लैकमेलिंग और दलाली के कार्य ऊपरी कमाई का ज़रिया नही होंगे। विज्ञापन पाने के लिए अच्छे और बुरे के बीच का फर्क करने की क्षमता को नज़रअंदाज़ नही किया जाएगा। मीडिया को समझना ही होगा कि यदि कोई सही अर्थों में समाज का ठेकेदार कहलाने योग्य है तो वह हम ही हैं। यदि समाज का ठेका उठाया ही है तो फिर समाज के हर अच्छे-बुरे के जिम्मेदार हम ही हैं। यदि हम ही समाज के नियमों को ताख पर रख छोड़ेंगे तो हममें और आम जनता में अन्तर ही क्या रहेगा। मीडियाकर्मी वर्दीधारी नही हैं फिर भी आम जनता से हटकर हैं कारण हमारी जिम्मेदारियां आम जनता से कहीं ज्यादा हैं। हम सड़क पर पड़े व्यक्ति को नजरअंदाज कर नही जा सकते जबकि आम आदमी मुसीबत से बचने को ऐसा करने का अधिकार रखता है, हमें दूसरों के सर का दर्द नही बनना हमें तो मुसीबतों से खेलना होगा यही मीडियाधर्म है।
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