
एक अन्य पहलू पर नजर डालकर देखते हैं, समझ में यह नही आता कि पुलिस मीडिया के लिए कहानियां छोड़ती ही क्यूं है? ऐसे मामले जहां हत्या बलात्कार और अपहरण जैसी घटनाएं हों वहां पुलिस फौरन ही अपने कर्तव्य क्यूं नही निभाती? जब पुलिस ही पीछे हट जाती है तो जनता अपने स्वयं के नियम का़नून बनाएगी ही और उसमें मीडिया का सर्वोपरि होना स्वाभाविक है कारण मीडिया की छवि आज भी उसी प्रथम जनक्रान्ति के रूप में है जिसने हस्तलिखित पृष्ठ द्वारा जन-जन तक एक दूसरे के विचारों को पहुंचाने का बीड़ा उठाया था। वो प्रिंट मीडिया ही था जिसकी बनाई छवि को आज इलेक्ट्रानिक मीडिया विभत्स रूप से भुना रहा है,संभवतः मीडियाबंधू जोरदार,मसालेदार और ब्रेकिंग न्यूज़ के पीछे भागते-भागते भूल गए हैं कि मीडिया मात्र माध्यम है ना कि निर्णयकर्ता या निर्णायक।
इस बात से इन्कार नही किया जा सकता है कि आज मीडिया है तो दैनिक जीवन काफी सुविधाजनक है। रोजाना की सामान्य दिनचर्या में यदि कुछ ऊंच-नीच हो जाए तो और कोई सहाय हो न हो पर ईष्वर के अलावा मीडिया ज़रुर आपके साथ होती है और जहां तक हो सके मामले को सुलझाने में आपकी सहायता भी करती है। लेकिन क्या सभी मीडिया संबंधित व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं। लगभग हर रोज कहीं ना कहीं एक नई घटना का सूत्रपात होता ही रहता है, परन्तु इसका यह मतलब तो नही कि प्रत्येक घटना की आंखो देखी स्थिति का सीधा प्रसारण किया जा सके। लेकिन मीडियावालों के बीच छिड़े लोकप्रियता पाने के युद्ध में मीडिया की मानवता पीछे छूट गई है। कैमरा लिए दिनभर शहर का चक्कर काटते नए पत्रकार केवल सनसनी की खोज में कुछ भी कर गुजरने पर आमादा रहते हैं। वे बिना आज्ञा किसी के दफ्तर अथवा घर कहीं भी पहुंच जाते हैं केवल इसलिए कि आस-पास के इलाके में सनसनी फैल जाए और कोई खास खबर न भी मिले तो कम से कम सस्ती लोकप्रियता का मौका न छूटने पाए। जबतक मीडिया की कार्यवाही लोकहित तक सीमित रहें प्रिय मालूम होती है और जब यह कार्य केवल अपने समाचार चैनल की टीआरपी रेटिंग के हित में किया जा रहा हो तो यह किसी अपराध से कम नही लगता।
लखऩऊ का लालबाग व्यापारिक क्षेत्र दोपहर के करीब 2 बजे का समय, अचानक शोर गुल के कारण जून की दोपहर का गर्म सन्नाटे से भरा माहौल चहल पहल से भर उठता है। दो व्यक्ति भयंकर गाली गलौज करते हुए सड़क पर एक दूसरे को धकियाते हुए ले आते हैं। उनके आस पास भीड़ जमा हो चुकी है। पास पड़ोस के अलसाए दुकानदार इससे पहले कि कुछ समझ पाएं पास खड़ी कार का शीषा झनझनाहट की तेज आवाज के साथ टूट कर बिखर जाता है। संभवतः दोनो के झगड़े के मध्य किसी शरारती ने काम दिखा दिया था। बात भले ही मामूली रही हो पर इस घटना के चलते मामला गंभीर हो गया। जिसकी कार थी अब उसकी बारी थी। कार का भुक्तभोगी मालिक मजबूत व्यक्ति था अपने सहयोगियों के साथ आकर उसने दोनांे को बुरी तरह मारना-पीटना शुरु कर दिया। जो बचाने आए थे छोड़कर भाग गए। अब पुलिस का मामला बन चुका था, पर पुलिस को कोई नही बुलाता। इसी बीच एक न्यूज चैनल की गाड़ी वहां आ पहुंचती है। बेहद मामूली आपसी झड़प जिसमें कोई घायल नही हुआ। इस घटना में ऐसा कुछ नही था जिसे उभारा जाता पर कारीगर की कारीगरी देखिए...फौरन ही उन दोनों मार खाए लोगों को बुलवाया गया और उन्हें उकसाकर दोबारा हाथापाई की नौबत पैदा कर दी गई। इस बार झगड़ा पहले से ज्यादा भड़क गया। यह सब कुछ पुलिस के घटनास्थल पर आने तक शूट किया जाता रहा। पुलिस के आते ही मामले को असाम्प्रदायिक तत्वों द्वारा मचाया गया उत्पात बताया गया। शीघ्र ही घबरायी पुलिस ने दोनों को मारपीट कर पूछताछ आरंभ कर दी और उन्हें पूरी रात बिना कारण ही जेल में सड़ाया गया। साफ समझ में आ रहा है कि पूरे दिन खोजने पर भी जब कोई खास मसाला हाथ नही लगा तो मीडिया के इन सड़कछाप लोगों ने जो एक प्लास्टिक के टुकड़े का परिचय-पत्र और हाथ में माईक कैमरा थाम कर स्वयं को समाज का ठेकेदार कहने लगते हैं वे सीधे-सीधे कानून को हाथ में लेने को तैयार हो गए। ऐसे लोगों को गैरजिम्मेदार नागरिक कहें या असामाजिक तत्व? ऐसी मीडिया की किसे जरूरत है?
कुछ खास चैनलों पर तो दिनभर केवल आने वाले प्रलय से डराया जाता है या फिर सीधे स्वर्ग का मार्ग ही दिखा दिया जाता है मानों यदि आप अपने दैनिक जीवन से असहज हों तो तुरन्त सषरीर स्वर्ग यात्रा पर निकल पडि़ए। इस वैज्ञानिक युग में जब देष को अंधकार से भरी दुनिया में रोषनी की खोज है तब टी.वी चैनलों पर भूतों की तस्वीरें दिखाकर मीडिया क्या साबित करना चाहती है। परीकथाएं और सास-बहू के रोने धोने के प्रसंग दिखाने के लिए क्या अन्य चैनल कम पड़ गए हैं जो न्यूज़ चैनल भी इस दौड़ में हिस्सा लेने लगे हैं। तंत्र-मंत्र, अंधविष्वास इस सबसे तो मीडिया का कभी कोई संबंध नही था वरन कभी ऐसे मामलों में लोगों को फंसा कर जब उनके साथ हुई धोखाधड़ी की घटनाएं सामने आती हों तब अवष्य दूसरों को सावधान करने हेतु मीडिया का आगे आना देखा जाता रहा है। हर वस्तु में मिलावट है, बंधागोभी,पालक और साग में कीड़े हैं, बैंगन,परवल,भिन्डी और लोभिया में रंग है, दूध में ज़हर है, घी में चर्बी है, आटे में पाउडर है मतलब अब आप भोजन करना छोड़ दीजिए और जो वस्तु न्यूज़ चैनलों पर विज्ञापित की जाएं केवल उन्हें ही खाएं। कारण जिन वस्तुओं का भारी भरकम रकम वाला विज्ञापन चैनल को मिलेगा निष्चित ही वह वस्तु आपके लिए शुद्ध हो जाएगी।

इस सबका इलाज तो तभी हो सकेगा जब मीडिया स्वयं कानून और नियमों के समक्ष आत्मसर्मपण करेगी। जब मीडियाकर्मी सर्वाधिक कानून का पालन करने वाले लोगों में से होंगे जब पे्रस वाले पार्किंग का पैसा भरने लगेंगे, जब पार्किंग निषेध से उठने वाली गाडि़यों में प्रेस की गाडि़यां नही होगी। जब नेता स्वयं चलकर प्रेस वालों को निवेदन कर अपनी सभाओं और पार्टियों में बुलाने आएंगे बजाए इसके कि एक फोन पर प्रेस वालों की कतारें बैण्डबाजे वालों से पहले पहुंच कर मुफ्त के खाने पीने को नही खड़ी हो जाया करेंगी। वेतन कम मिलने पर ब्लैकमेलिंग और दलाली के कार्य ऊपरी कमाई का ज़रिया नही होंगे। विज्ञापन पाने के लिए अच्छे और बुरे के बीच का फर्क करने की क्षमता को नज़रअंदाज़ नही किया जाएगा। मीडिया को समझना ही होगा कि यदि कोई सही अर्थों में समाज का ठेकेदार कहलाने योग्य है तो वह हम ही हैं। यदि समाज का ठेका उठाया ही है तो फिर समाज के हर अच्छे-बुरे के जिम्मेदार हम ही हैं। यदि हम ही समाज के नियमों को ताख पर रख छोड़ेंगे तो हममें और आम जनता में अन्तर ही क्या रहेगा। मीडियाकर्मी वर्दीधारी नही हैं फिर भी आम जनता से हटकर हैं कारण हमारी जिम्मेदारियां आम जनता से कहीं ज्यादा हैं। हम सड़क पर पड़े व्यक्ति को नजरअंदाज कर नही जा सकते जबकि आम आदमी मुसीबत से बचने को ऐसा करने का अधिकार रखता है, हमें दूसरों के सर का दर्द नही बनना हमें तो मुसीबतों से खेलना होगा यही मीडियाधर्म है।
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