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मंटो को ना पढ़ना तुममें हिम्मत नहीं है




पढ़ते हुए दम घुटने लगा, यूँ लगा की बस अभी मतली हो जाएगी, बताऊँ क्यूँ?
क्यूंकि सच को बर्दाश्त करने की अब हिम्मत नहीं रही. वो भी ऐसा सच जो किताब के पन्नों में ही दबा रह गया... जब गड़े मुर्दे उखाड़े जायेंगे तो बू आएगी ना, वो जो मंटो को बदनाम और घटिया मानते हैं उनके साथ भी यही हाजमे वाली दिक्कत रही होगी. बड़ा मुश्किल काम है पढ़ना और उससे ज्यादा मुश्किल है पढ़ी हुई कहानियों को समझना क्यूंकि कुछ घंटो के लिए सोच ही बदल जाती है. धर्म जात ईमान पर ऊँगली उठाने की ताक़त ही ख़त्म हो जाती है, एहसास होने लगता है की तीन उँगलियाँ अपनी ओर भी इशारा कर रहीं हैं. बच के कहाँ तक भागेंगे...! उसी गन्दगी का हिस्सा हैं हम जिसे बरसों तक हममें से कोई भी साफ़ नहीं कर पाया क्यूंकि ये गन्दी नाली सा बुज्बुजता कीचड़ हमारे दिलोदिमाग के आस पास पिछले ६७ सालों से जमा हुए जा रहा है. हम नयी नयी नालियां खोदकर इस गन्दगी को बहार के बजाये और भीतर ले जाने का रास्ता बना रहे है, इसकी बदबू की आदत अब शराब का नशा सा बन चुकी है ज्यादा पी लो तो सुबह कसम खाते हैं की आज से पीना बंद और शाम हुई तो प्यास से गला सूखने लगा की एक पेग से क्या नुक्सान चलो पीते हैं...धीरे धीरे आदत ज़िन्दगी बन गयी है. अब कोई सही बात करे तो जवाब होता है बकवास बंद कर लेक्चर मत दे अपना काम कर क्यूंकि वही उलटी आने वाली समस्या महसूस होने लगती है, बिलकुल उसी तरह जैसे मोहब्बत में फंसी जवानी को माँ-बाप की हिदायतें उलझन और घुटन लगती हैं. मंटो को पढने के लिए दिमाग के बंद झरोकों को तोड़कर खोलना होगा क्यूंकि इनपे बनावट और दिखावे की कीलें बेहद मजबूती से गड़ी हुई हैं, जब लगे की सांस लेना आ गया तब इन दस्तावेजों को पलट कर देखना शायद थोडा बहुत फर्क महसूस होने लगे ...और इस बार मतली ना हो!

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