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जिसका काम उसी को साजे



फिल्मी कलाकारों का बेरोज़गारी और फिल्म की असफलताओं के दौरान समय व्यतीत करने या सस्ती लोकप्रियता की चाह ने फिल्म को जाने अंजाने राजनीति से जोड़कर देखना आरंभ कर दिया, सारी गंदगी की शुरूआत यहीं से हुई। देखते देखते अचानक 1995-96 में ऐसा दौर आया कि संपूर्ण कला जगत पर राजनीति तेज़ी से हावी होने लगी, और आज ये हाल है कि हर किस्म के छोटे बड़े भूले बिसरे और अपने खत्म होते करियर को सीधा जनमंच पर चमकाने के लिए हर क्षेत्र हर कला से जुड़ा कलाकार और व्यवसायी राजनीति का हिस्सा बन जाता है।
दो नावों पर पैर रखने का नतीजा कांग्रेस के समय में लोग अमिताभ बच्चन और भाजपा के समय में विनोद खन्ना की शक्ल में देख चुके हैं, या तो आप देश सेवा करें या आत्म सेवा, या व्यवसाय करें या राजनीति या तो आप कुशल कलाकार है या फिर कुटिल राजनीतिज्ञ आप दोनों नही हो सकते, कभी नही। अगर आप की जीभ अचानक देश और धर्म के प्रति ज़हर उगलने लगी है तो आपको राजनीति की छूत लग चुकी है और अब आप कलाकार की श्रेणी से बाहर हैं, केवल अपनी बात को रखने के नाम पर जो स्वतंत्रता हमारे भारत का संविधान देता है उसका दुरपयोग करना यदि आप सीख गए हैं तो अब आप कलाकार नही रहे। 
कुल मिलाकर ऐसे कलाकार चाहे वे जिस भी क्षेत्र से हों, न घर के रहे न घाट के! कभी कला या कलाकार भी धर्म जाति की राजनीति का हिस्सा बन जाएंगे ऐसा किसी ने सोचा नही था, कलाकार केवल कलाकार होता है। राजनीति का दंश झेल पाना किसी भी कला के लिए संभव नही फिर वो संगीत हो, लेखन हो, अभिनय हो, नृत्य हो या फिर किसी भी प्रकार की हस्तकला हो। मूर्ति का निर्माण एक शिल्पकार करता है, ऐसा करते समय उसे कोई अंतर नही पड़ता कि मूर्ति किसकी है और न ही मूर्ति को अंतर पड़ता है कि उसे कौन गढ़ रहा है। केवल कलाकार की कल्पना और रचना की कमियों को उजागर करने और उसे बेहतर बनाने की बात की जाती है। 

क्यूंकि दो चार ज़हरबुझे सस्ते डायलॉग सिनेमा में भले ही चल जाएं, जो बार बार सुने जाएं किन्तु भारतीय राजनीति में हर रोज़ आपको अपनी ज़ुबान की धार तेज़ करनी पड़ती है, यहां लिखे लिखाए संवाद किसी काम के नही कि रटे और बक दिए। लिहाज़ा यहां भी कलाकारों की गाड़ी का ईंधन आधे रस्ते में ही समाप्त हो जाता है। जिसका काम उसी को साजे, की कहावत को गले से बांध कर चलते रहिए, इसी में सबका भला है।


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