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बख़्श दो यार ... लखनऊ को जाने दो

ज़रा ठीक ठीक बताएंगे कि लखनऊ किस जात-धर्म वालों कि जगह है, खुली चुनौती है आपको, बस एक बार साबित करते हुए बताईए कि लखनऊ किसका है? चलिए जाने दीजिए इतना बता दीजिए कि यहां मन्दिर ज़्यादा हैं या मस्जिद? जाने दीजिए इसे भी छोड़िए, ये बताईए कि लखनऊ के जन्में कितने हैं और प्रवासी कितने? आप इसमें से किसी भी सवाल का सटीक उत्तर नही दे पाएंगे क्यूंकि लखनऊ के इन्दिरा नगर के फलां मु...हल्ले के मिश्रा जी गोण्डा से, दीक्षित जी बहराईच से, गुप्ता जी बस्ती से करीब 30 साल पहले आए सस्ते प्लाट लेकर मकान बनाए, और उनके मकानों के पीछे फिरोज़ाबाद से आकर बसे फखरूद्दीन की दूध की डेयरी थी जो उनके लिए सुविधाजनक था और वही उनका प्रिय पड़ोस भी था आज भी है और आगे भी रहेगा। अब उनसे पूछियेगा तो वो सब लखनऊ के ही हैं। पास के ब्लाक में तिवारी जी को आज भी एहसास नही कि उनके मकान के तीन तरफ मुसलिम परिवार बसे हैं, तिवारी जी सहित सभी मुस्लिम परिवार लखनऊ के जन्में हैं और आपस में वे सब सिर्फ पड़ोसी हैं 35 वर्ष से अधिक होने को आए। ये 3ः1 का अनुपात कहीं-कहीं 8ः1 का है तो कहीं पर 5ः5 का भी है। बस कहीं वो ज़्यादा तो कहीं हम, दस्तरख्वान की बिरियानी के बिना फलाने सिंह साहब के यहां की पार्टी पूरी नही होती, रिज़वान अली खुद होम डिलीवरी करते हैं लगे हाथों डिस्काउंट भी मिलता है और दोनों में से किसी का धर्म भी नही भ्रष्ट होता। मुहल्ले का धोबी मुन्शीलाल बेग साहब के बड़े से परिवार के सारे कपड़े हर सप्ताह उपाध्याय जी के घरवालों के कपड़ों के साथ ही धोने ले जाता है और सही सलामत लौटाता है कभी कभी कपड़े इधर के उधर हो जाते हैं पर आजतक किसी का धर्म नही गया। दाल-चावल से कंकर बीन लिजिएगा, पर आटे से शक्कर कैसे अलग कीजिएगा?
लखनऊ का धर्म आपमें से कोई नही तय कर पाएगा, लखनऊ को निशाना बनाए बैठे लोग ये नही जानते कि जो एक बार इस शहर का हो गया फिर वो बाकी दुनिया से पराया हो गया। उन्हें शिकवा है कि हम सुकून से हैं, पर हमें उनसे कोई शिकायत नही, एक बार दिल लगा कर तो देखें, यहां जन्मा जीव मरने के बाद भी यहीं याद बन कर ठहर जाता है, सड़कें चैड़ी हो चली हैं, शहर-ए-लखनऊ का दायरा हर तरफ 50-60 कि0मी0 तक बढ़ता जा रहा है। बड़ी-बड़ी इमारतें बन रहीं हैं, पुराने दरक चुके कोठी-हवेलीनुमा मकान और पीपल के पेड़ की जड़ों से ढंकी छोटी-छोटी झरोखेदार दुछत्तियों को तोड़ कर काम्पलेक्स बनाने की मुहीम ज़ोरों पर है लेकिन इस सब के बाद भी हर झरोखे,गली,मुहल्ले,चैक-चैराहे पर लखनऊ का स्वभाव झांकता ही रहता है और हमेशा ऐसा ही रहेगा। हम निशातगंज से सिकन्दरबाग चैराहे तक जाने के लिए रिक्शेवाले से भाड़े की बहस करते रहेंगे क्यूंकि हमें कोई जल्दी नही, कुछ छूट तो नही जाएगा जो 10 मिनट देर हो जाए। हम हज़रतगंज से सहारागंज पैदल ही जाएंगे, शुक्ला की चाट के दुकान की महक और मुक़ीम भाई के रेस्टोरेन्ट से उठती चाय के भाप की महक सून्घते हुए सहारागंज तक जाने का मज़ा कैसे छोड़ा जा सकता है। हमें कभी देर नही होती इसलिए हम कभी भागते नही आज भी साईकिल फंसा कर बीएमब्ल्यू को रोक के ही सड़क पार करते हैं। कोई चिल्लाए तो कहते हैं क्या भाई बड़ी जल्दी है आपको ट्रेन पकड़ी है क्या? बिना जम्हाई लिए न खाना शुरू करते हैं न ख़त्म आखिर आराम तलबी हमारी पहचान है। ऐसे प्रेमी, शान्त स्वभाव, आराम तलब, ऐशपसन्द, भोजनपटु चटोरे आलसियों से भला क्या दुश्मनी किसी को?लखनऊ को बख़्श दो...जाने भी दो यारों!
 

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