अमरीकन अंग्रेजी में ‘‘रैगिंग’’ शब्द चिढ़ाने या छेड़ने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। विशेष रूप से देर तक और तीव्रता से चिढ़ाने-छेड़ने के अर्थ में । ब्रिटिश अंग्रेजी में इस शब्द का प्रयोग किसी को क्रूर मजाकों से सताने के अर्थ में होता है। इस शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में निश्चित जानकारी नही है लेकिन यह शब्द सन् 1790 और 1800 के बीच ब्रिटेन में प्रचलन में आया। पुराने छात्रों द्वारा नए छात्रों की रैगिंग करने की परंपरा भी ब्रिटेन में सन् 1800 के बाद ही शुरू हुई थी। यद्यपि भारत में कलकत्ता का फोर्ट विलियम कालेज सन् 1800 में और मद्रास का सेंट जार्ज कालेज 1812 में स्थापित हुए, ये दोनों ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा स्थापित काॅलेज थे, लेकिन इन दोनों काॅलेज में रैगिंग का कोई इतिहास नही मिलता। वास्तव में रैगिंग मिलिट्री स्कूलों में होती है जहां से देश की रक्षा करने को तत्पर सैनिकों की उत्पत्ति होती है। मिलिट्री स्कूलों में रैगिंग का सीधा उद्देश्य जूनियर कैडिटों को सीनियरों कैडिटों के प्रति आज्ञाकारी और शारीरिक रूप से उन्हें सख्त बनाना होता है और यह रैगिंग की प्रक्रिया साधारण परिचय से खत्म न होकर लगातार चलती ही रहती है। यह रैगिंग की प्रथा मिलिट्री स्कूलों से होकर प्रोफेशनल काॅलेजों तक पहुंच गई और इसके बाद एक फैशन बनकर देश भर के हर छोटे बड़े काॅलेज का चलन बन गई और साथ ही साथ काॅलेज के परिवेश और वहां पढ़ने आने वाले छात्रों की मानसिकता के साथ रैगिंग का स्वरूप भी बदलता चला गया, सीधे शब्दों में बद से बदत्तर होता चला गया। भारत में 1857 में कलकत्ता, मुम्बई और मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद से ही रैगिंग परंपरा की शुरूआत हुई। कहने का मतलब सात समंुदर पार से आया ये विदेशी शब्द आज के युवा छात्रों के गले की फांस बन गया है। परिचय प्राप्त करने की प्रक्रिया को रोकना न तो संभव है न ही उपयुक्त। लेकिन इसके बहाने छात्रों को तंग करने पर रोक लगाना एक आदर्श स्थिति होगी जिस पर सरकार का कोई बस नही है। देखा जाए तो विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों के भीतरी मामले में सरकार का हस्तक्षेप हास्यास्पद लगता है। 60 के दशक तक रैगिंग का स्वरूप ‘‘स्वागत समारोह’’ था और 70 के दशक तक आते-आते स्वागत समारोह, अभद्रता, अश्लीलता और गुण्डई में बदल गया। किसी पुरुष छात्र को सरेआम निरवस्त्र कर देना, उसके मुंह से अश्लील शब्द कहलवाना, उसके साथ भद्दी हरकतें करके उसे सार्वजनिक उपहास का पात्र बना देना और उसे इस हद तक डरा देना कि घबराकर छात्र, छात्रावास या शिक्षण संस्थाना ही छोड़कर भाग जाए और अति होने पर अपने प्राणों से ही हाथ धो बैठे। जो जान से गए मीडिया की खबर बन गए जो बच गए मानसिक तनाव के रोगी बनकर रह गए। अमन कचरू तो सन् 2009 की कहानी है, जिसे अमन के माता-पिता तो क्या आप भी शीघ्र नही भुला पाएंगे और इससे पहले कि ये मामला ठण्डा पड़ता हिमाचल प्रदेश के मेडिकल काॅलेज के एक और छात्र की रैगिंग के दौरान जमकर हुई पिटाई का मामला भी सामने आ गया। ऐसा लग रहा है मानिए रैगिंग का जितना विरोध होगा रैगिंग में उतनी ही बढ़ोत्तरी होती जाएगी। जब रैगिंग के मायने ही न पता हों तो उसे करने के पीछे क्या उद्देश्य होता है? सवाल ये भी है कि अगर रैगिंग की प्रथा से किसी को पीड़ा पहुंचती है और इससे किसी शुभ लक्ष्य की प्राप्ति नही होती, तब यह कुप्रथा साल दर साल क्यों चली आ रही है? कौन इसको समर्थन दे रहा है?
रैगिंग अब शिक्षा संस्थाओं का फैशन बन गया है। रैगिंग रोकना संभव नही है। जो विद्यार्थी उच्च कक्षाओं में पहुंचते हैं वे ही निचली कक्षा में आने वाले नए छात्र-छात्राओं बस इसलिए रैगिंग करते हैं क्योंकि पहले उनकी भी रैगिंग हुई थी। मैंने युवा छात्रों से प्रश्न पूछा-‘‘रैगिंग मतलब?’’ उत्तर मिला-‘‘इन्ट्रोडक्शन!’’ एक अन्य छात्रा ने स्पष्ट शब्दों में कहा-‘‘जब मैं नई आई थी तो मुझे बहुत तंग किया गया था, इस साल मेरी बारी होगी।’’ साफ है कि छात्रा रैगिंग के सीधा मायने केवल तंग करने को कह रही है, उसे परिचय या स्वागत समारोह जैसे शब्द का पता ही नही है। रैगिंग को आज की भाषा में बदले की परंपरा कहें तो समझने में आसानी होगी। मीडिया का नजरिया देखें तो छात्र की जान चली जाना मीडिया के लिए मसालेदार कहानी है, इसे तबतक दिखाया जाता है जबतक लोगों की आंखें निराशा से नम न हो जाएं और अभिभावक अपने बच्चों को काॅलेज भेजने से कतराने लगें। अमन कचरू की मौत का तमाशा न्यूज चैनलों पर दिखाते हुए मीडिया ने कहा-‘‘न रैगिंग करें न रैगिंग सहें।’’ क्यों? इससे क्या होगा?, क्या फैशन बन चुके रैगिंग की परंपरा समाप्त हो जाएगी? क्या वाकई रैगिंग को रोका जा सकता है ? मेरा जवाब है - नही! रैगिंग अपराध नही है, अपराधी काॅलेज का प्रशासन है जिसने समय के साथ रैगिंग के विकृत होते स्वरूप पर कड़ी निगाह नही रखी। जब सामान्य नाच-गाने के अलावा कपड़े उतारने और छेड़-छाड़ जैसे मामले प्रकाश में आए यदि उसी समय काॅलेज प्रशासन ने सख्ती बरती होती तो रैगिंग को इतना बढ़ावा कभी नही मिलता कि नए छात्रों से मार-पीट की नौबत आए और इसमें किसी की जान भी चली जाए। दरअसल छात्रों की मानसिक अपरिपक्वता ने रैगिंग का रूप नष्ट करके रख दिया है। परिचय समारोह में नए छात्रों की क्षमताओं की परख उनके अहं और संकोच को खत्म करने के उद्देश्य कहीं खो गए हैं। अब रैगिंग वयस्क छात्रों की विकृत और कुण्ठाग्रस्त मानसिकता को सुकून देने का जरिया बन चुकी है। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों की तुलना में उन संस्थाओं में जहां डोनेशन लेकर प्रवेश दिया जाता है, वहां ज्यादा पीड़ादायक रैगिंग होती है। जिन बच्चों के अभिभावक इतने सामथ्र्यवान हों कि प्रवेश परीक्षा पास कर भर्ती न मिलने पर पैसे के जोर पर अपने बच्चे का बड़े से बड़े काॅलेज में दाखिला करवा सकें उन छात्रों को भला काॅलेज से निकाले जाने अथवा कक्षा पास करने का क्या तनाव होगा लिहाजा उनका अधिकांश समय मौज मस्ती और अपना गुट मजबूत करने में ही व्यतीत होता है और तब तो सोने पे सुहागा वाली बात होती है जब नए वर्ष में नए छात्रों का प्रवेश होता है। यहां आरंभ के छः माह नए छात्रों का जीवन दुष्कर बनाने से ज्यादा मजा भला और किस चीज में आता होगा? काॅलेज प्रशासन ऐसे छात्रों को कुछ भी कहने या उनके विरूद्ध सख्त कदम उठाने से कतराता है कारण या तो उनका दिया डोनेशन इतना तगड़ा होता है कि काॅलेज प्रशासन उससे हाथ नही धोना चाहता या फिर वे छात्र किसी राजनीतिज्ञ या इतने रसूखवाले परिवार से ताल्लुक रखते हैं कि उनके साथ किसी विवाद में काॅलेज प्रशासन उलझना ही नही चाहता। आज की नौजवान पीढ़ी काॅलेज की चारदीवारी में सकारात्मक मूल्यों को सीखने का आग्रह नही रखती, वे तो बस इतना चाहते हैं कि उनकी निजी महात्वाकांक्षाएं पूरी हो जाएं भले ही सामाजिक मानक टूटते रहें।
देखा जाए तो रैगिंग में भीड़ का मनोविज्ञान काम करता है, भीड़ या दल उन लोगों में भी जान फूंक देता है जिन्होंने जीवन में कभी किसी को आंखें उठाकर देखने की भी हिम्मत न की हो। भीड़ में शामिल होकर अक्सर कमजोर लोग भी ऐसे व्यक्ति की पिटाई कर आते हैं जिसके सामना अकेले होने पर वह डर कर भाग जाता हो, वास्तविकता यही है कि भीड़ में जो भी कुकर्म होते हैं उनका किसी एक व्यक्ति पर दोष नही आता इसलिए कोई भी बड़ी सरलता से गुट में सम्मिलित होकर बुरे से बुरा काम अंजाम दे देता है और स्वयं को सहजता से माफ भी कर देता है कि भला उसने अकेले ने अकेले क्या किया वहां और लोग भी तो थे। कुण्ठित और डरपोक मानसिकता के सीनियर छात्र अपनी खीज और चिढ़ को निकालने के लिए नए छात्रों को सरलता से अपना शिकार बना लेते हैं। इनमें काॅलेज के वे छात्र भी सम्मिलित होते हैं जो एक कक्षा में कई वर्ष बिता चुके हैं सीधे शब्दों में काॅलेज के असफल विद्यार्थीयों का वह दल जो विभिन्न कारणों से काॅलेज से बाहर निकल नही सका और अब निकलना भी नही चाहता, उनके लिए काॅलेज कैम्पस इस दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह और उनकी अय्याशी का अड्डा है। वास्तव में रैगिंग को कुत्सित रूप देने वालों में यही दल शामिल होता है, छात्र का साधारण परिचय नाच गाने तरह-तरह की सजाएं और हरकतें करवाने का दौर तो दिन में ही खत्म हो जाता है पर रात में हाॅस्टल के भीतर होने वाली विभत्स घटनाओं के जिम्मेदार ऐसे ही वरिष्ठ छात्र होते हैं जो अपने दल को बढ़ाने का प्रयास करते रहते हैं और सफलता न मिलने पर जानलेवा पिटाई अथवा ऐसी कार्यवाही करते हैं कि लगातार इस यातना को झेलने वाले छात्र या तो भाग जाते हैं या जान से ही हाथ धो बैठते हैं। जब वरिष्ठ छात्र सीमा के बाहर जाकर रैगिंग का प्रयास करते हैं जैसे घुटने के बल चलना, उल्टी कमीज पहनकर कक्षा में आना या रात भर जागकर वरिष्ठ विद्यार्थी की तीमारदारी करना तभी यह सब आपत्तिजनक हो जाता है। यही नही इस नई रैगिंग का रूप विभत्स है, आपत्तिजनक बातों से लेकर क्रियाकलाप तक सबकुछ ‘सेक्स ओरिएन्टेड’ ही होते हैं, अप्राकृतिक यौन संबंधों, समलैंगिक संबंधों और अपसंस्कृति की बातें होती हैं। कनिष्ठ छात्रों को नारकीय स्थिति का सामना करना पड़ता है और शारीरिक प्रताड़ना भी झेलना पड़ती है। गोरखपुर इन्जीनियरिंग काॅलेज के छात्रों के साथ जबरन और जाति पूछ कर रैगिंग करने की बात सामने आ चुकी है, आरक्षण कोटे से आए छत्र तो भय से कांपते रहते हैं, नए प्रवेशार्थियों की घिघ्घी बंधी रहती है कारण काॅलेज में रैगिंग का तरीका यातनामय होता है, सूत्रों के अनुसार नब्बे के दशक में ही भयंकर हादसे हो चुके हैं और एक छात्र की मौत भी हो गई थी। काॅलेज प्रशासन इस समस्या को आसानी से हल कर सकता है, यदि कोई छात्र एक कक्षा को उत्तीर्ण करने में दो साल लगातार असफल रहता हो तो उसे काॅलेज से निकाल देना चाहिए और करेसपोन्डेन्स कोर्स करने की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए।
वर्तमान दौर में रैगिंग के स्वरूप पर कहना उचित होगा कि यदि कहीं ‘वल्गेरिटी’ को प्रोत्साहन दिया जा रहा है तो शिक्षकों को इसका विरोध करना चाहिए, लेकिन वे ऐसा नही करते। कुछ बुरे दिमाग वालों ने रैगिंग में गन्दगी भर दी है। इन गन्दगियों को दूर करने के लिए छात्र-छात्राओं को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए और छात्र संघों को कोई नीति निर्धारित करनी चाहिए। रैगिंग किसी नई संस्था में प्रवेश के बाद परिचय का एक अच्छा तरीका है। इससे वरिष्ठों और कनिष्ठों के बीच एक ऐसा संबंध बनता है जो जीवन पर्यन्त कायम रहता है। एक दूसरे के प्रति सहयोग की भावना भी बढ़ती है, इन दिनों रैगिंग की आड़ में जातिवाद और बदले की भावना जैसी विकृतियों के चलते रैगिंग बुरी तरह बदनाम हो चुकी है यह एकदम अच्छी बात नही है। छात्र जीवन का अपना ही रस होता है इस सुनहरे समय और आनंद की अनुभूतियां जीवन भर व्यक्ति के साथ चलती ही रहती हैं। कुछ काॅलेजों में फे्रशर्स को प्रथम वर्ष में दाढ़ी,मंूछें मुड़ांकर ड्रेस में रहना होता है, पंक्तिबद्ध हो कर चलना होता है। वास्तव में यह सब अनुशासन का ही एक अंग है जिसे स्कूली जीवन के खत्म होते ही अधिकांश छात्र अपने जीवन से निकाल फेंकते हैं। रैगिंग के बाद वरिष्ठ छात्रों द्वारा कनिष्ठ छात्रों के स्वागत की भी परंपरा है जो सभी मायनों में साकारात्मक कदम है, एक नए समाज की ओर....।
रैगिंग जैसी समस्या का निदान भी काॅलेज के छात्रों के हाथ में ही है। मुझे नही लगता कि सरकार के बीच-बचाव या कानून की मध्यस्थता को कोई अधिकार है कि वे छात्रों के निजी जीवनशैली पर किसी प्रकार का दबाव या प्रभाव बनाएं और छात्रों को बताएं कि उन्हें संस्था में किस प्रकार रहना है। यह सब तो हम स्कूली जीवन में छोड़ आए थे। उंगली पकड़ कर चलने की प्रवृत्ति से निजात पाने का काॅलेज ही तो एक अकेला माध्यम है, एकजुट रहने की क्षमता की परख का यही समय होता है, काॅलेज का जीवन वास्तविक समाज में उतरने के ठीक पहले का ट्रे्िरनंग सेंटर होता है। काॅलेज जीवन में आए उतार चढ़ाव को समझने के बाद छात्र बाहरी दुनिया में भी अपना जीवन सुगमता से व्यतीत कर लेता है, वहीं दूसरी ओर इसका मुकाबला कर आवाज उठाने वाले छात्र मजबूत और गजब के जीवट बनकर बाहरी दुनिया में भी अपनीे छाप छोड़ते हैं। अभिभावक ही प्रथम शिक्षक बनकर अगर बच्चों में सामना करने और विरोध करने की सूझ-बूझ देवें तो दुर्दान्त घटनाओं की नौबत आए ही क्यों? अत्याचार पर अंकुश लगाने के सबके अपने तरीके हैं, कहीं छात्रसंघ के चुनावों में साथ न देने की धमकी काम आ जाती है, तो कहीं नए छात्रों की आपसी एकजुटता व एकमत जो पुराने छात्रों को मौका ही नही देती कि वे परिचय समारोह को व्यभिचार में परिवर्तित कर सकें। अस्सी के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय में रैगिंग का स्वरूप बहुत ही विकृत था, नए छात्र छात्राओं के साथ अश्लील हरकतें व भद्दे मजाक किए जाते थे। छात्रों का एक पक्ष यह सब करने के लिए आमादा रहता था तो दूसरा पक्ष अपने परिचित छात्र छात्राओं के साथ किसी भी तरह की अश्लील हरकत रोकने के लिए तत्पर रहता था। इस स्थिति के कारण कई बार झगड़े फसाद भी हो जाते थे पर नौंवे दशक के मध्य के बाद ऐसा नही रहा। दिल्ली विश्वविद्यालय का नया सत्र आरंभ होते ही काॅलेज प्रशासन रैगिंग को रोकने के लिए चुस्त रहने लगा और इसमें छात्र संघ और पुलिस का भी सहयोग मिलने लगा। छात्र संघ ने अश्लील हरकतें रोकने के लिए ऐसे प्रावधान बनाए जिससे दोषी छात्रों को दण्डित किया जा सके, इन सब कार्यवाहियों के चलते रैगिंग में आई विकृतियों में पर्याप्त सुधार हुआ।
रैगिंग पर अंकुध लगाने के अभियान में काॅलेज प्रशासन अपने ढंग से सहयोग दे सकता है जैसे काॅलेज में एक ऐसा शिकायती विभाग खुले जहां जाकर छात्र अपने साथ हुई ज्यादती की रिर्पोट दर्ज करा सके और साथ ही उस छात्र को इस बात की तसल्ली भी रहे कि उसका नाम गोपनीय रखा जाएगा। इससे काॅलेज में छुप छुपाकर चल रही यंत्रणाओं की खबर काॅलेज प्रषासन को रहेगी और संभवतः रैगिंग के जानलेवा घटनाओं पर काफी हद तक अंकुश लगाना भी संभव हो सकेगा। एक बात का विशेष ध्यान रखा जाए कि जब भी प्रताड़नायुक्त रैगिंग के विरूद्ध काॅलेज प्रशासन सजा का प्राविधान करे तो किसी एक छात्र को सजा न देकर सभी सीनियर छात्रों को एकसाथ सजा दी जाए। इससे जो छात्र वास्तव में पढ़ने आए हैं या गंभीरतापूर्वक छात्र जीवन का पालन कर रहे हैं वे स्वयं ही अपने साथी छात्र को अपने नुक्सान का उत्तरदायी मानकर उस पर अंकुश लगाने का प्रयास तो करेंगे ही साथ ही आगे भी वो कोई गलत कदम न उठा सके इस पर भी लगाम कसने की तैयारी रखेंगे।
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