पैर नही मान रहे मेरे ... बड़ी कोशिश कर रही हूं किसी तरह ख़ुद को भीतर ले जाया जाए, फोन पर बात करते वक़्त तो इतनी तकलीफ महसूस नही हुई फिर अचानक ये क्या हो रहा है। ये डर नही है, ये उलझन भी नही है...ये कोई घबराहट... हां घबराहट सा ही कुछ होगा। वही डर स्कूल में देर से पहुंचने पर जो होता है, पर अब मैं स्कूल में तो हूं ही नही फिर क्यूं और किससे डर रही हूं? नही नही ये तो वो वाली बात भी नही, ये क्या मेरे गाल गीले से हो गए हैं, ये पानी सा क्या है? ये आंसू हैं क्या? पर मैं रो तो नही रही थी, फिर अचानक से क्या हो गया। 15 साल हो गए इस घेरे से बाहर निकले संभवतः शरीर ही बाहर गया मेरा मैं तो वहीं स्कूल में छूट गई। कोई आओ ले जाओ मुझे इतनी देर तक स्कूल में रहना मेरे लिए ठीक है क्या? अभी बाहर मां खड़ी होंगी मुझे लेने आई हैं। सोचते सोचते कब प्रधानाचार्या का कक्ष आया पता ही नही चला...पता चला जब एक आवाज सुनी आओ...आओ ऋतु अंदर आ जाओ! वही स्वर वही अनुशासित और संतुलित लहजा अदभुत आकर्षण...मेरे पैर तो पत्थर से थे पर आवाज सुन कर सीधे भीतर चल दिए। सारे शरीर को इस आवाज की मान लेने की आदत सी है, जैसे घर में मां ने कहा और बस मान लिया वैसे ही स्कूल में ये आवाज! कुछ और आवाजों की प्रतीक्षा थी पर संभवतः 15 साल बहुत लंबा समय है, या वो समय जब मैं वहां थी सब नही थे। मैं पूरे दायरे में बिल्कुल पहले जैसे एक बार दौड़ना चाहती थी, पर दिल इतनी जोर से धड़क रहा था कि हिम्मत जवाब दे गई फिर शरीर भी भीतर धीरे से बोला तेरा दिल अब पहले जितना मजबूत नही, दवा पे रहता है थोड़ा तो रहम कर। मेरा स्कूल मेरी कक्षाएं वो कमरे उनमें मैं बैठी थी वो वही मेज कुर्सियां मुझे जाना है, मुझे एक बार उन पर बैठना है नही पता नही क्या हो रहा है। फिर वही आवाज कैसी हो ऋतु? वो चेहरा अभी परीक्षा के बाद ही तो मिलकर गई थी उनसे ... ये अचानक वो मेरा हाल चाल क्यूं पूछ रही हैं? क्या एक दिन में कोई किसी को भूल जाता है?
अरे यार फिर वही बात 15 साल हो गए... मुझे क्यूं नही महसूस हो रहा कुछ भी मैं तो उतनी ही बड़ी हूं अभी...न मैं बड़ी नही हो सकी। कोई कुछ भी कहे, वो 45 मिनट और फिर मैं बाहर आयी पूरे शरीर में अजीब सा नयापन मैं इस नए शरीर को संभाल नही पा रही, कोई थोड़ी देर मेरा हाथ पकड़ कर साथ चलो बाहर तक वहां मम्मी लेने आई होंगी, फिर एक झटका दिल का भीतर से मां कहां हैं अब ... 8 साल पहले तो वो भी चली गईं। अरे मेरी कार तो यहां खड़ी है, अब चलना चाहिए बहुत देर से स्कूल में हूं, घर जाना होगा। गेट से बाहर आ गई मैं... अरे ये तो मैं अपने स्कूल आई थी वो मेरी अध्यापिका रीता टण्डन जो अब प्रधानाचार्या हैं और वो किश्वर यासमीन मैम और और वो तो रेनू चैधर मैम हैं, मैं क्या सोच रही थी इतनी देर तक मुझे कितना कुछ कहना था। मैं तो कोई बात ही नही कह पाई। मेरी और अध्यापिकाएं आज हैं नही स्कूल में... मुझे उन्हें भी मिलना था। भीतर से सब क्यूं याद नही आ रहा था? ओह हां मुझ पागल को तो मंदिर जा कर भगवान के सामने भी सब भूल जाता है कि क्या मांगने आई थी? और ये तो वो लोग हैं जिनसे मैं अभी तक छूटी नही हूं देखो फिर गाल और हाथ गीले हो गए...रो तो नही रही मैं रोने का कोई औचित्य भी नही फिर ये इतना पानी आंखों में कहां से आया जाता है...नही नही ये ठीक नही पानी सूखने के साथ कहीं ये अदभुत अनुभूति भी भाप बनकर न उड़ जाए नही इसे कै़द करना होगा जबतक सांसें कै़द हैं।
Comments
Post a Comment