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मुक्ति तो तब ही है

अत्यन्त अद्भुत है जीवन, लगता है कि बीत गया... पर ऐसा होता नही, समय बार बार स्वयं को दोहराता है. हमे लगता है कि कुछ नया घट रहा हो जैसे परन्तु कुछ भी नया नही हो रहा ... चेहरे वही, भावनाएं वही, केवल समय ही कुछ फेरे लेता है. सप्तपदी सा...दिए वचन जो अग्नि के सामने देकर जीवन भर भूलते फिर दोहराते जोड़ों जैसा. कुछ संबंध हैं पूर्व जन्मों के तो कुछ कर्म हैं वर्तमान के...फिर फिर वहीं लाके खड़ा कर देता है जिससे बच कर हम मुक्त हो जाने का दावा करते हैं
क्या है मुक्ति मृत्यु है क्या? नही नही ये तो फिर उसी फेर मे पड़ने की तैयारी है...मुक्ति तो तब ही है जब मन, प्राण और शरीर यह मान ले कि सभी वचन जो दिए थे पूर्ण हुए.

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