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कथा

नैना जब पैदा हुई, कोई उसे देखना नही चाहता था। गांव में माता का प्रकोप हो गया, हर कोई बीमार...नैना अपने साथ ये बीमारी लेकर आई है, ऐसा स्थानीय पुजारी का कहना था क्यूंकि नैना के नयनों का रंग हल्का था, मादक रंग। नैना को मंदिर सेवा में दान किया जाए तो गांव पर से महामारी का प्रकोप संभवतः कुछ कम हो जाएगा, पिता फौरन मान गए उन्हें तो वैसे भी कन्या अस्वीकार थी परन्तु मां...ने थोड़ा ज़्यादा समय लिया फिर मां...भी मान गई। नैना को पांच वर्ष की आयु में मंदिर मठ को दान दिया जाने का संकल्प लिया गया, जिससे गांव की समस्या भी स्वास्थ्य विभाग के अथक प्रयास से दूर हो गई और नैना के पिता के अथक प्रयास से नैना का छोटा भाई भी दुनिया में आ गया।
घर की ड्योढ़ी पर कुत्ता भी आकर पड़ा रहे तो कुछ समय बाद उसकी भी चिन्ता होने लगती है और फिर नैना तो जीवित हंसती बोलती बच्ची थी। जैसे जैसे 3 साल की होने को आई उसके पिता का न जाने कैसे उससे प्रेम बढ़ने लगा...वो जो भी मांगती पिता ला देते और मां का कलेजा मुंह को आता जाता था। बेटा तो पा गया था छोटेलाल फिर क्यूं इस अभागी पर मोह बढ़ रहा था उसका जो और दो साल बाद अंजान हाथों विदा होने वाली थी।
बेटी से प्यार किसलिए जब बेटी इतनी मनहूस होती है, अरे एक बेटी गांव के सरपंच के भाई की भी तो है जो शहर के अस्पताल में खु़द से लड़ रही है कि जीए या मर जाए... जानते हैं माधव काका के शहरी भांजे ने उससे प्रेम किया...फिर अचानक एक दिन उसकी सलवार के नाड़े को खींच के बोला चल बहुत हुआ अब मुझे खु़श कर, वो डर गई मना करना चाहा प्यार से तो पता नही कहां से दो और गांव के ही वयोवृद्ध सामने आ खड़े हुए, मंजरी को लगा मदद आई पर नही यहां तो कपड़े नोचने फाड़ने का दौर शुरू हो गया। हां मंजरी नाम था उसका और गांव के वो दो लोग जिनमें से एक उसका सगा चाचा और पड़ोस के घर वाले गगन चाचा थे। वो रोई गला फाड़कर चिल्लाई पर ऐसे में उसे चुप कराने का इंतज़ाम लेकर आया था, भूषण हां वही शहरी छोकरा सारे तीन पांच जानता था कोई पहली बार थोड़े ही था ये काम...तेज़ाब पिला दिया कहानी ही ख़त्म हो जाती मंजरी की पर पता नही कैसे बच गई मनहूस, कसम से ये औरतें बड़ी सख़्त जान होती हैं। इतने अपमान तो कोई सोच कर ही मर जाए पर वो बच गई, कुछ बता नही पाई किसी का नाम नही ले पाई, पर पता नही क्यूं अस्पताल में इशारे कर कर जीना चाहती है बार बार यही बताती रहती है।
मंजरी की सहेली विदिशा के तो मां-बाप का भी पता नही, अपने कथित मौसा मौसी के यहां पड़ी रहती है। अकसर मौसा के भरोसे छोड़ के मौसी मायके जाती है कि घर के काम करेगी मौसा की सेवा करेगी तो दहशत में मौसी के साथ चलने की ज़िद करने लगती कमबख़्त...बेचारी मौसी कहतीं, आवै जावै का खर्चा पाती तोहार मरा मईया बापू देहैं का? सुन के विदिशा सकते में आ जाते। हांलाकि ये झूठ था! विदिशा के मां बाप जीवित थे और बड़े चैन से अपने दो बेटों के साथ इस करमजली से कोसों दूर जीवन बिता रहे थे। वो असल में इस अपशकुनी के जन्म के तुरन्त बाद दोनों अस्पताल से खिसक लिए थे, अस्पताल ने सरकारी अनाथालय में डाल दिया था और अनाथालय की दीदी जी ने अपने फलते फूलते कारोबार के तहत विदिशा को नौकर खोजने वाले एक अमीर दम्पत्ति को बेच दिया था। ये भुख्खड़ विदिशा बचपन से ही चटोरी थी,किचन में दूध में से मलाई निकाल कर खा रही थी तो निर्मल खन्ना जी की नज़र पड़ गई, 13 साल की मोटी तगड़ी स्वस्थ्य विदिशा सहसा उनकी पतलून में उनका स्नेह जाग उठा, फौरन विदिशा को सजा देने के लिए अपनी गोद में बिठा लिया कुछ ही देर बाद रोती धोती विदिशा को निर्मल सर की गीली पतलून भी धोनी पड़ी जो उसके गोद में बैठने से खराब हो गई थी। निशा मैडम आईं तो फौरन शिकायत हुई कि, लड़की चोर है निकाल बाहर करो इसे कल के कल तो निशा मैम ने दो तमाचे जड़के अपनी पुरानी धोबिन को मुफ्त की नौकरानी के नाम पर विदिशा पकड़ा दी और अपनी और अपने पति दोनों की जान छुड़ाई, कमख़्त पतलून सूूखने से पहले ही विदिशा घर से बाहर जा चुकी थी। तबसे धोबिन ही विदिशा की दूर की मौसी हैं, और मौसा जी विदिशा के यौन विज्ञान के नए शिक्षक और परीक्षक।
मंजरी विदिशा अच्छी सहेलियां थीं, विदिशा थोड़ी कमज़ोर और मंजरी काफी मजबूत हिम्मतवाली, तभी तो तेज़ाब पीकर भी जीवित थी। हांलाकि उसकी छोटी आंत गल चुकी थी पर भूख तो दिमाग़ में छुपी होती है न! विदिशा जब कभी शहर को जाती तो जैसे तैसे मंजरी से मिल ही आती, बातों बातों में जिनमें बातें कम इशारे ज़्यादा होते थे, विदिशा ने एक नाम बूझ ही लिया वो था माधव...लेकिन माधव काका तो सरपंच के भाई थे फिर...मंजरी ने कागज़ पर इधर उधर देख कर लिखा गौरव। विदिशा के पैरों तले ज़मीन सरक गई, गौरव तो उसे न जाने कबसे उसके मौसा मौसी के चुंगल से छुड़ाने के वायदे करके उसके साथ शादी के पहले ही सुहाग रात पे सुहाग रात मनाए जा रहा है। विदिशा ने काग़ज़ फाड़ दिया तो मंजरी की आंखों से गंगा जमुना की धार पे धार एक विदिशा ही थी जो सुने बिना भी उसकी भाषा समझ सकती थी और अब वो भी उसे अनसुना कर रही थी। वो चली गई, नही नही मंजरी नही विदिशा चली गई फिर कभी मंजरी से भी मिलने नही आई लेकिन घर भी तो नही पहुंची वो कहां थी विदिशा?
सुबह सुबह रोना पीटना मचा था पूरे गांव में...अरे नही आप ग़लत समझ रहे हैं, आज पांच साल की नैना की विदाई जो है। मंजरी को गांव लौटे भी इतना ही समय हो चुका है। विदिशा भी गांव लौट आई है, सुना है कि किसी स्वयंसेवी संस्था की मैडम उसे रास्ते में मिली थीं, आप तो जानते हैं न औरतों के पेट में कोई बात नही टिकती, इस बेसब्र लड़की ने भी बिना छुपाए सारी बातें उन्हें रो गा के आ गई। उन मैडम ने गांव में ही एक दफ्तर डाल लिया और विदिशा मंजरी के अलावा बहुत से व्यर्थ जीवन यहीं आकर जुड़ गए हैं। अपेक्षा मैम बड़ी तेज़ हैं... हां भई वही एन जी ओ वाली, सारी लड़कियों को एकदम तैनात और सजग रहने की शिक्षा देती ही रहती हैं। योग व्यायाम पढ़ाई खाना पीना और घरेलू के अलावा गृह उद्योग जैसे काम भी करवाती हैं। अब तो ये लड़कियां थोड़ा काम की लगने लगीं हैं, ... हां तो हम नैना के घर के पास थे। पण्डित जी अपने साथ कुछ पण्डे और आरती थाली वगैरह लेकर नैना को लिवा ले जाने आए हैं। अचानक नैना के पिता की गर्जना सुनाई पड़ी,‘‘ कऊन जमाने की बतियावत हो पण्डित जी? माता के परकोप हमरी बेटी के दोस नाही रहाय, हमरी बेटी मा दोस होत तो इ गांवन के सर्वनास बहुत पहिले हुई जात।’’ पण्डित जी किंकियाए, मुकर रहे हो छोटे लाल, संकल्प तोड़ोगे तो पाप पूरा गांव भुगतेगा।
‘‘ भुगते देओ पण्डित’’ अब सम्मान सूचक जी हट चुका था, छोटे लाल का लहजा अब एक बाप के लहजे में बदल चुका था, अपेक्षा मैम आईं, क्या करोगे इस पांच साल की बच्ची का मंदिर में? बोलो! कैसे पालोगे कैसे देखभाल करोगे? कौन पढ़ाएगा? कौन खिलाएगा? पैसे कपड़े और दूसरी तमाम ज़रूरतें कैसे पूरी होंगी? पण्डित जी मन्दिर में तो इतना दान भी नही आता। एक भी बात का जवाब देने का समय नही था? 6-7 किलोमीटर दूर एक ढाबे पर नैना को लेने आए ग्राहक इंतज़ार कर कर के थक रहे थे सिर्फ नैना नही, आस पास के कई गांवों से 5 से 15 साल की बहुत सी लड़कियां आनी थीं ये सोच कर कि लड़कियों को ईश्वर सेवा में दान करके जीवन सफल हो रहा है और बेटी पालने के खर्चों से भी मुक्ति मिल रही है। अपेक्षा मैडम की तेज़ नज़र ये सब भांप रही थी कि मामला इतना सरल नही जितना दिख रहा है, उन्होंने अपने सहयोगी मित्रों से छानबीन के लिए मदद मांगी जल्द ही पुलिस का दबाव पड़ते ही पण्डित जी के बड़े पेट से आधा सच बाहर निकल आया, छोटे लाल और बाकी गांव वालों के लिए ये आधा सच कानों में पिघला लोहा बहने जैसा रहा, फिर ज़बान खुली विदिशा की...माधव के भांजे जो शहर गया था उसे फोन कर सामान्य ढंग से बुलवाया गया कि शक न हो उसे, मंजरी तो अब बोल नही सकती थी पर लिखने लगी थी तो उसने दो और नाम लिखे जो पूरे गांव के लिए करारा झटका था, सगा चाचा नौनिहाल और पड़ोस के घर वाले गगन चाचा... ऐसा लग रहा था गांव में कचरा चाटने वाले सूअरों की फेहरिस्त तैयार हो रही थी। शहर के इतने पास इस गांव को अगर कोठा कहा जाए तो ग़लत नही होगा, सारे कुकर्म हो रहे थे यहां, सब था यहां स्कूल के अलावा जो अब अपेक्षा मैम के कारण है। तगड़ी चार्जशीट, छापे, दबिश और रात दिन की जांच पड़ताल चली फिर धीरे धीरे मामला ठण्डा होता गया, बस निर्मल और निशा खन्ना बच गए, विदिशा को उनके बारे में कुछ याद ही नही था और फिर उनके घर अब 14 साल की किरण जो आ गई है, घर के काम और साहब की पैन्ट धोने को।
जेल तो नैना के पिता छोटे लाल को भी भुगतनी पड़ी असमय कन्या दान के कारण...और पता है आप सबको जब पुलिस छोटे लाल को जेल ले जा रही थी तो सबसे ज़्यादा कौन रोया? अरे वही अपनी हल्के रंग की आंखों वाली नैना !

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