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आप लोग जहां भी हों मेरा प्रणाम स्वीकारें!

सिटी मांटेसरी स्कूल इन्दिरानगर ब्रान्च में नर्सरी का मुझे कुछ याद नही, केजी का भी कुछ खास नही बस अपना हरे रंग का होलडाॅल का बस्ता, नीली प्रिंस कम्पनी वाली वाॅटर बाॅटल, गुलाबी पेन्सिल बाॅक्स और गुलाबी मैगी के स्टीकर वाला टिफिन याद है, लेकिन अपनी पहली कक्षा की क्लास टीचर ‘‘शिप्रा लखनपाल’’ का चेहरा आज भी आंखों से नही उतरता, मासूम, गालों पर पिंपलस, माथे पर और चेहरे पर गिरते बाल, खूब गोरी और हमेशा हल्के रंग के खासतौर पर गुलाबी, हाथों में अधिकतर काॅपी की गड्डी थामे घूमती रहतीं थीं, उस समय जब सुबह पापा मुझे स्कूल के गेट पे छोड़कर जाते तो आंखें बस शिप्रा मैम को खोजतीं कि कब वो आएं कब मैं उनसे चिपक के बोलूं गुड माॅर्निंग मैम, और भी टीचर्स थीं रश्मि मैम, काॅल मैम और मेरी प्रिंसिपल...जीन मैक्फरलैण्ड एंग्लो इण्डियन थीं, गुलाबी त्वचा, बाॅब कट बाल उसपे हल्का मेकअप और अविश्वसनीय रूप से करीने से बंधी सारी जिससे पूरा शरीर ढंका रहता था। लेकिन उस उम्र में स्कूल जाने का मुख्य कारण शिप्रा मिस होती थीं, मुझे नही पता कि उनके साथ मुझे इतना मज़ा क्यूं आता था, दिन भर की पढ़ाई खेल पेन्टिंग खाना हर समय वो ही दिखती थीं, उन्होंने तो कभी नही पीटा पर रश्मि मैम मेरी जमकर धुनाई करती थीं और हो भी क्यूं न? मैं थी भी हद दर्जे की शैतान, लड़कों की बस्ते से पिटाई बेन्च पे बेन्च रख कर हाई जम्प, टेस्ट में दूसरों की काॅपी पे लिखना और अपनी खाली छोड़ आना, टेबिल पे बैठकर दोस्तों को प्रवचन सुनाना ये मेरे मुख्य काम थे। उस समय बगैर मारपीट और डांट के कोई काबू कर लेता था मुझे तो शिप्रा मैम!

पांचवीं कक्षा के दौरान एक अद्भुत अनुभूति ने कभी पीछा नही छोड़ा, देखा जाए तो आज भी वही हाल है। कक्षा 5 की क्लास टीचर ‘‘अजिया बाजपई’’ को देखकर न जाने किस प्रकार की उठापटक सी मच जाती थी दिल और दिमाग के बीच, जानबूझ कर उनका दिया होमवर्क नही करती थी, कि वो बुलाकर डांटें और उन्हें पास से देर तक देखने का मौका मिल जाए। उनकी गाढ़ी भूरी आंखें, घुंघराले बाल और सांवला चेहरा कुल मिला कर खू़ब दिखती थीं, उनके लम्बे नाखूनों पर चमकती नेलपाॅलिश, और बड़े फूलों वाली साड़ी जो कमर के एकदम ठीक स्थान से बंधी होती थी और उनसे आती एक ख़ास महक जिसे सूंघ कर ही बता दूं कि वो कक्षा की ओर आ रही हैं या स्टाफ रूम में हैं, उनकी लिपिस्टिक जो हल्के तांबाई रंग की होती थी उनपे ख़ूब फबती थी और मज़े की बात पूरे दिन के बाद भी नही बिगड़ती थी, खाने पीने के दौरान भी नही! उनकी तेज़ आवाज़ और जलधारा सी अंग्रेज़ी भाषा पर पकड़ ने हम छात्रों को मोहित कर रखा था साथ ही उनकी नई नई योजनाएं कभी स्कूल फेट कभी गेम सेशन कभी डेकोरेशन काॅन्टेस्ट ... स्कूल में जान सी बनी रहती थी उनकी वजह से...
सातवीं कक्षा से ब्रान्च बदला और यादें साथ साथ इन्दिरा नगर से महानगर आ गईं, मन ही नही लग रहा था, मेरी गायन क्षमता का उन्हीं दिनों खुलासा हुआ और पारूल घडियाल, निशा चतुर्वेदी, प्रतिमा सिंह तीनों ने मुझे 5000 बच्चों में से ढूंढ निकाला और ज़िन्दगी को एक ऐसा दौर दिया जो आने वाले 15 सालों तक चलता रहा। पारूल मैम और निशा मैम को भूल पाना असंभव ही कहूंगी, निशा मैम डांस टीचर थीं लिहाज़ा उनका गोरा रंग और गाढ़ी बड़ी आंखें याद रह गईं और जहां तक पारूल मैम का सवाल है, उनकी तो हर बात लाजवाब थी...आवाज़, चेहरा, हारमोनियम बजाना, मुझे सिखाना, मेरी हिम्मत बढ़ा के पहली बार मंच पर प्रस्तुत करना। वो न होती तो मेरा ये रूप कभी दुनिया के सामने नही आता बस इतना होता कि मम्मी पापा गाते हैं तो बेटी भी गा लेती है। इतना सम्मान इतने पुरस्कार सफलता नाम ऐसा कुछ न होता, हांलाकि सब एक समय के साथ आए और ख़त्म भी हो गए फिर भी जितना भी मिला उसके लिए पारूल और निशा मैम को प्रणाम! वे बहुत याद आती हैं...
दो साल बाद आया वो समय जब भारतीय बालिका में प्रवेश मिला, विद्योत्तमा मैम! मम्मी लेके गई थीं उनसे मिलवाने वो मेरी नवीं कक्षा की क्लास टीचर थीं और बायोलाॅजी की टीचर भी, गोल गोरा चेहरा, माथे पर बिन्दी, लाल सफेद साड़ी और लम्बी चोटी! मेरे नए स्कूल ड्रेस की नाप उन्होंने ली थी, वो स्कर्ट की लम्बाई जो उन्होंने मेरे लिए तय कर दी थी वो फिर पूरे चार साल तक न बदल सकी। असल में उनका सानिध्य उस समय जितना मुझे चाहिए था उतना नही मिल सका और वो कमी मैं अब पूरा कर रही हूं कारण, संगीत ने यहां भी मेरा सारा समय और सर्मपण अपने नाम कर लिया था। बावजूद इसके कुछ चेहरे ऐसे आए जो इस दौर में भी मेरा जुनून बने रहे, ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश और क्लास टीचर साथ ही मनोविज्ञान की अध्यापिका विजया टण्डन मैम से भेंट, अब यहां कभी कभी शब्द कम पड़ने जैसे स्थिति हो चली है मेरी, क्या लिखूं उनके बारे में उनका बेबाक, बिन्दास नज़रिया, खुली सोच, मेरे लिए हर वक़्त उनके पास समय होता था। हर समस्या को सुनती थीं, समझती भी थीं और तुरन्त समझा भी देती थीं, प्यार और सख़्ती का अद्भुत सम्मिश्रण! छोटा कद, गोल बिन्दी, साधारण साड़ी, ज़्यादातर लम्बे बाज़ू के ब्लाउज़ ही पहनती थीं, कोई मेकअप नही, सादगी और समझदारी से भरा किरदार। ऐसा नही कि भारतीय बालिका में और टीचर्स नही थीं पर मैं जिस उम्र के दौर को वहां बिता रही थी उस समय मुझे वास्तव में जो ज़रूरत थी वो मुझे जिन अध्यापिकाओं से मिली उसीका नतीजा मेरा वो संतोषप्रद और आत्मनिर्भर जीवन है जो मैं आज बिता रही हूं। इन्टर के दो वर्ष एक और मायने में बेहद यादगार और यकीनन रोचक रहे एक ऐसे शख़्स की ओर मेरा औचित्यपूर्ण आर्कषण जिनसे मैं कभी पढ़ी नही संगीत के चलते मौका ही नही लगा राजनीति शास्त्र में रूचि जगाने का, लेकिन मेरे स्कूली जीवन के बाकी पूरे हिस्से पर उनका प्रभाव रहा... रीता टण्डन मैम। रीता मैम का आकर्षक व्यक्तित्व मुझपर ख़ासा असर पड़ चुका था, उनकी साड़ी का रंग हो या लिपस्टिक का वो गाढ़ा रंग जो आजतक नही बदला, उनका तेज़ चलना, सीधी उठी गरदन जो जल्दी झुकने वालों में से नही है, उनकी तेज़ स्पष्ट आवाज़ जो भूल होने पर शरीर में झुरझंरी पैदा कर दे और सीखने वाले को दोबारा पूछने की ज़रूरत ही न पड़े, कोई लड़खड़ाहट कोई संकोच नही, मानों उन्हें हर बार पता होता है कि क्या कब और कैसे बोलना है, क्या होना या करना है, संगीत, लेखन, कला हर विषय में उनकी पकड़ और अविश्वसनीय रूचि के बारे में बस यही कहूंगी कि जौहरी का हुनर है उनमें जो पत्थर में हीरा देख के पहचान ले। स्कूल में घुसते ही निगाहें पहले उन्हें देख लेतीं कि वो आई हैं या नही और बस एक बार उनसे बात करने और देखने का लोभ रोज़ाना नए नए बहाने, विवाद खोजकर उनके पास मुझे खींच ले जाता, आज मुझे ऐसा लगता है कि वो सब समझती थीं पर उन्होंने मेरी भावना की उस समय भी कद्र की और कभी मुझे ठेस नही पहुंचाई, दोस्त कहते कि उनसे डर लगता है पर ईश्वर जानता है कि उन्हें देखकर सिवाय सम्मान और प्रेम के कोई अन्य भाव मन में कभी आया ही नही। स्कूली दिनों की खट्टी मीठी यादों को अब भले ही मैं सिर्फ याद कह कर भूल जाऊं पर उन दिनों जब मैं उसी माहौल में पल बढ़ रही थी वो वातावरण ही मेरे व्यक्तित्व का विकास कर रहा था। मेरा टूटता आत्मविश्वास और गिरते मनोबल को उन्होंने संभाला भी और मुझे दोगुनी शक्ति से सभी कार्याें के प्रति रूचि दिखाने और लगातार जुटे रह कर बाधाओं को पार कर छा जाने का जज़्बा उन्हीें से मिला, वे भी मेरे कारण विवादों में घिरी रहतीं लेकिन मानों उन्हें कोई परवाह ही नही थी सिवाय इसके कि मैं जो भी करूं उसमें कोई बाधा न आने पाए। हर वक़्त हर जगह एक स्तंभ की तरह अडिग रह कर वे लगातार मेरी जीजिविषा में वृद्धि करतीं बिल्कुल जैसे घर पर मेरी मां! न तो वे कमज़ोर थीं न मुझसे कमज़ोर पड़ने की आशा रखतीं थीं। सारे स्कूल में आए दिन कार्यक्रमों की झड़ी लगी रहती और हर कार्यक्रम में किसी न किसी रूप में मैं होती जैसे जुनून सा सवार रहता था, आज जब उन्हें देखती हूं जीवन मानों और बढ़ जाता है। स्कूल के चुनावों की जीत हो या फेयरवेल का रोचक मंच हर जगह उनका आर्शिवाद साए की तरह साथ रहा...उनके बाद फिर कभी कहीं किसी का भी इतना प्रभाव मुझ पर या मेरे जीवन पर नही पड़ा। उनसे आज भी मिलती हूं, और जब वे मुझे वे अपनी प्रतिछवि कह कर पुकारती हैं तो सही मायनों में गर्वान्भूति होती है।
ईश्वर से हाथ जोड़कर अन्र्तहृदय से प्रार्थना है कि मेरे जीवन में आए ये तमाम चेहरे जिन्होंने समय समय पे प्रवेश कर मेरे जीवन को सदैव एक नया लक्ष्य एक नया रूप दिया मेरे व्यक्तित्व विकास में सहायक रहे, इन सभी पर और मुझ पर तेरी कृपा दृष्टि रहे।

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