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तुम बहुत अच्छा गाते थे


सिर्फ महसूस होता है कि ज़िन्दगी आगे बढ़ रही है, लेकिन जहां से दौड़ लगाई थी वहां की ज़मीन भले ही फिसल रही हो पर हम!, जहां थे वहीं खड़े हैं। सिर्फ आभास होता है कि हमने बदलाव देखे, ऐसे बदलाव तो बंद पिंजरे का जीव भी देख रहा होता है, जिसकी नीयति कैद में रहना मात्र से अधिक नही होती, इस शरीर में कै़द आत्मा की दशा भी उस जीव से कुछ अधिक भली नही। कुछ चीज़ों को होने से मैं कभी नही रोक सकी, जैसे बीते समय को बार बार याद दिलाने वाले लोगों का लगातार जीवन में आते जाते रहना, मैं चाहूं न चाहूं वे बीते समय को को मेरे जेहन से खोद निकालने का काम करते ही रहते हैं। अपनों के ऐसा करने से आत्मा की पीड़ा दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है, किन्तु कुछ चेहरे जिनसे कभी आत्मीयता नही रही उनके न रहने पर आंखें क्यूं छलछला जाती हैं, ये समझ ही नही आ रहा...
तबले की थाप से ताल निकलते सुना था, उनकी तबले की थाप से सुर भी बहेंगे ये आने वाले समय ने बता दिया। व्यवसायिक कार्यक्रम करना बंद करने के तकरीबन 3 साल बाद दुर्गा पूजा का कार्यक्रम देखने आर.डी.एस.ओ जाना हुआ। महानवमी के अवसर पर गज़ल संध्या का आयोजन किया गया था, एकदम ताज़ादम नई आवाज़ अपने उस्ताद गुलशन भारती के अलावा लखनऊ के कुछ ही ऐसे नाम हैं जिन्हें गज़ल को वास्तव में निभाने की महारथ है और उन आवाज़ों को मैं खू़ब पहचानती हूं। मिथलेश लखनवी, कमाल खान, कुलतार सिंह, सुनील शुक्ला इन सभी के साथ गाने और सुनने के खू़ब मौके कमाए मैंने, पर ये आवाज़ कुछ नई ही मालूम पड़ रही थी। जाकर देखा तो सुखद आश्चर्य था, कृष्णानंद राय बिल्कुल नए रूप में हारमोनियम के साथ अपने कंठ स्वर बिखेर रहे थे। बहुत अच्छा लगा, मेरे गुरू भाई होने के साथ ही साथ बहुत अच्छे स्वभाव के स्वामी और बेमिसाल तबलावादक...उस्ताद जी से मिलने के पहले भी भातखण्डे और संस्कार भारती के विभिन्न कार्यक्रमों में भईया से मेरी भेंट होती रही। मुझे तो कभी उनके साथ गाने का सौभाग्य नही प्राप्त हो सका परन्तु मेरे साथ तबले पर उन्होंने कई बार संगत की, स्कूल से कई संगीत प्रतियोगिताओं में भाग लिया तब भी भईया ने हमेशा यही कह कर मेरे साथ तबले पर संगत की, ‘‘कलाकार छोटा बड़ा नही होता, कला बड़ी होती है और मुझे इसका गाना बहुत भाता है, इसलिए इस लड़की के साथ तबला बजाऊंगा।’’ न अभिमान न घमण्ड न ही वरिष्ठ कलाकार होने का लेशमात्र गुमान, जाने अन्जाने भईया द्वारा मिला ये सम्मान मुझे जीवन भर विस्मरण नही होगा।
संगीत मात्र सुनने कहने की नही समझ का भी खेल है, जिसे हर कोई खेलना तो चाहता है पर सफलता तो कुछ के ही हाथ लगती है। संगीत गणित के जादूगर उस्ताद गुलशन भारती भी कृष्णानंद भईया को बहुत पसंद करते थे। उनकी दोहरी ख़ासियत ताल और स्वर पर उनकी बराबर पकड़ उन्हें सभी समकक्ष कलाकारों से अलग बनाती थी। मुझसे संगीत के परे उनसे बहुत कम ही बात होती थी और इन दिनों तो केवल फेसबुक पर ही उनको देखा, बाकी कुछ भी पता नही चल सका और 24 अप्रैल 2016 की रात अचानक ही ऐसे...वे चले गए। एक कष्ट साल रहा है भीतर से जबकि इंसानी रिश्तों की ज़मीन पर कभी भईया के साथ मेरा इतना क़रीबी साथ नही रहा किन्तु आम रिश्तों से परे स्वरों से जुड़े संबंध भी अपने में अद्भुत होते हैं।
भईया तुम वास्तव में संगीत समझते थे, लोग सिर्फ कलाकार अच्छे हो सकते हैं पर तुम अच्छे इंसान थे इसलिए श्रेष्ठ कलाकार थे। अभी तो बहुत गाना-बजाना था...क्यूंकि तुम वास्तव में बहुत अच्छा गाते थे!

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