जब भी बंगाल की बात होती है लगता है किसी और देश की बात हो रही है, शेष भारत की राजनीति, योजनाओं और विकास से क्यूं कटा हुआ है बंगाल? बंगाल का पेट दोनों जून भरा हो तो शान्ति ओढ़ कर सोता रहता है। कोलकाता की साहबी और रौनक देखने वाले हावड़ा के नीचे की ग़रीबी नही देख पाते...शराब, नाईट क्लब और कला सहित्य संगीत में डूबे मनमौजी लोगों के बीच बैठ कर रूखी सूखी राजनीति की बातें नही कर सकेंगे आप और मध्यम वर्गीय अथवा निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की सोच यही कि बस घर में जी भर चावल और दो टुकड़ा मछली की व्यवस्था रहे फिर कौन आगे की सोचता है? इसी सोच के कारण ऐसा महसूस होता है मानों इस प्रदेश का समय कहीं ठहर गया है। न कुछ बदलता है, न ही फिलहाल बदलने के कोई आसार हैं, सीमाएं भी सुरक्षित नही हैं अब, बांग्लादेशी नदी पार कर बंगाल में नया पाकिस्तान-मुगलिस्तान चाहते हैं, शरीर का सबसे कमज़ोर हिस्सा होता है पेट उसी पर लात मार कर विरोधी को परास्त करने की रणनीति है ये, दीदी अगर अपने ससुराल वालों को खु़श करने के लिए हाथ घुमा कर कान को पकड़ना चाहती हैं तो वे इस देश के गद्दारों की सूची में सबसे ऊपर आने वाली हैं। बांग्लादेशी घुसपैठिए और नक्सलियों का पूरा ज़िम्मा त्रिणमूल सरकार ने केन्द्र सरकार पर थोप़ दिया है, उल्टे सरकार की नाकामयाबी का क्रोध दीदी सरकार अपने ही लोगों पर उतार रही है।
नक्सलबाड़ी से अभियान आरंभ करने के बाद भी बंगाल काबू में नही आ रहा, बंगाल में राजनीतिक घुसपैठ को भाजपा की आंशिक सफलता माना जा सकता है किन्तु अभी भी प्रश्न है कि कौन सा कारक है कि ममता से त्रस्त होने के बाद भी लोग उन्हीं के साथ हैं, भाजपा के दिग्गज समझ गए हैं कि बंगाल की मांद खाली कराना आसान नही! बंगाल और दक्षिण भारत के संवेदनशील लोगों को व्यक्तिवाद-व्यक्तित्व के प्रभाव में सरलता से आते देखा है इतना शीघ्र, गंभीर एवं स्थाई प्रभाव अन्य प्रदेश के जन सामान्य पर पड़ते नही देखा गया, जलवायु कारण हो सकता है किन्तु प्रभाव में आना और प्रभावित होना दोनों एकदम विपरीत प्रतिक्रियाएं हैं। यहां के लोग और उनका बेपरवाह रवैया ही बंगाल की जड़ों को सड़ा रहा है, भूख है, निर्धनता है, अभाव है लेकिन जैसे ही पेट भर जाता है कल के भात की चिन्ता मन से सरक जाती है दोबारा भूख लगने तक, भात में दाल-नून-तेल हो या न हो, बस रात भर की नींद हो। तेज़ उमस भरी दोपहरी की पसीजन पानी से भी धुलने का नाम नही लेती, स्नान भला कोई कितनी बार करे और बार बार नहाना भी भूख को दावत देने जैसा ही तो है। केवल खाना और सोना ही ध्येय है, शिक्षा और स्वास्थ्य का प्रश्न मन को नही सताता और यदि सताता भी होगा तो केवल 10ः जनता को जिन्होंने प्रदेश के बाहर निकलकर उच्च जीवन स्तर और विकास को महसूस किया है किन्तु 90 फीसद लोगों का एकसार जीवन उनका स्वभाव बन चुका है जिसमें अब बदलाव की गुंजाईश बेहद कम है। जो जीवन में परिवर्तन के नाम से बेचैन हो उठते हों वे भला वृहद राजनीतिक परिवर्तन का पक्ष किस प्रकार लेंगे?
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