दक्कन के नासूर ने औरंगजे़ब की जान ले ली...स्वघोषित आलमग़ीर (विश्वविजेता) का राष्ट्रविजय स्वप्न अधूरा ही रह गया। जिस-जिस की नज़र उस ओर थी वो कभी सलामत नही रहे, द्राविड़ ही वास्तविक हिन्दु स्थान है जहां से भारत के उस विशाल स्वरूप का प्रारंभ होता है जिसे सही मायनों में स्वदेश की संज्ञा दी जा सकती है। हमारे लिए पाश्चात्य कोई सभ्यता हो सकती है किन्तु दक्षिण भारत, अंग्रेज़ी को मात्र भाषा और विदेशी चाल-चलन को दिमाग़ी फितूर का नाम देता है, जिनके भीतर तनिक भी राष्ट्रधर्म जीवित है वे ही दक्षिण के इस स्वरूप को देख पाते हैं, अन्यथा सड़क के किनारे फास्टफूड समझकर इडली-डोसा की प्लेट में दक्षिण भारत को खोजने वाले लोगों की उत्तर भारत में कमी नही है। दक्षिण भारत किसी व्यंजन का नाम नही, दक्षिण भारत तो वह अजेय दुर्ग है जिस पर विजय पाकर वास्तविक राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक पार्टी बनने की चाह न जाने कितने ही राजनीतिक दलों का प्रमुख ध्येय रहा होगा।
भाजपा का अगला पड़ाव बंगाल से कहीं ज़्यादा कठिन सिद्ध होगा, राष्ट्रविजय का स्वप्न लिए भाजपा अब भारत के उस हिस्से को बढ़ रही है जहां उसे अपनी सारी कूटनीति, अनुभव और राजनीतिक दाव-पेंचो के साथ उतरना होगा। दक्षिण पर उत्तर भारतीय राजनीतिक प्रभाव का इतिहास टटोलें तो कांग्रेस ने काफी हद तक वास्तविक भारत के हिस्से में घुसपैठ कर उत्तर-दक्षिण को जोड़ने का प्रयास किया किन्तु डा0 राम मनोहर लोहिया के ‘‘कांग्रेस हटाओ देश बचाओ’’ के नारे ने कांग्रेस का 1967 में ही कई अन्य राज्यों के अलावा तमिलनाडु और केरल से सफाया कर दिया फिर राजीव गांधी आसीन कांग्रेस के बाद किसी भी राजनीतिक दल का वर्चस्व दक्षिण पर कायम न हो सका, उस समय कांग्रेस के वर्चस्व का दक्षिण भारत से सफाया, औरंगज़ेब से अधिक बदत्तर परिस्थितियों में हुआ था और आज तो कांग्रेस अपने ही अस्तित्व की लड़ाई थके हुए तरीकों से लड़ रही है।
कोई उत्तर भारतीय राजनीतिक दल एक भी सीट दक्षिण भारत के किसी राज्य में जीतता है तो यह उसके लिए वास्तविक उपलब्धि मानी जाएगी, दक्षिण की राजनीति तक पहुंचना यदि अब बड़ी बात न रह गई हो तो दक्षिण की राजनीति पर जमे रहना अवश्य ही राजनीति के इतिहास में एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी, यह और बात कि दिल्ली में बैठे रह कर किस तरह दक्षिण भारत में पल-पल हो रहे राजनीतिक विचारधारा के बदलाव एवं आम जनता के मानसिक परिवर्तन पर किस प्रकार नियंत्रण रखा जाएगा, यह भाजपा के लिए एक खुली चुनौती है। घड़ी भर में असंतोष व्याप्त होकर, विरोध फिर विद्रोह पर उतर आने वाले दक्षिण भारतीय स्वभाव का एक और परिचय है भक्ति भाव, एक बार यह भावना किसी व्यक्ति विशेष के प्रति विकसित हो जाए तो सारे देश की राजनीति का चेहरा पूरी तरह पलट भी सकता है किन्तु यह नारियल सिर से फोड़ना, अपना सिर फोड़ने जितना कष्टप्रद है। जिन्हें आपके रहन-सहन, बोलचाल और खान-पान के तरीकों से ही संतोष न हो वे आपको किस प्रकार स्वीकार करेंगे। मोदी की ऐसी कौन सी विचारधारा होगी जो गंगा-यमुना के साथ महानदी,कृष्णा,कावेरी,गोदावरी के बहाव में भी एकसार बहेगी? भाजपा का दक्षिणी दिवास्वप्न किस प्रकार यर्थाथ में परिवर्तित होगा यह देखने को उत्तर भारत उत्सुक है!
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