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क्यूंकि नज़र होती ही है बदलने के लिए...



गृहयुद्ध की ओर बढ़ते इन कदमों को किसी न किसी उपाय से रोकना ही होगा, देश का प्रधान सेवक भी मौके की गंभीरता से अनभिज्ञ नही है किन्तु कोई तो कारण होगा ही कि फिलहाल चुप है। दाउद इब्राहीम की नई तस्वीर का मिलना और ज़किर नाईक का पकड़ा जाना कहीं न कहीं चुप रहने के पीछे कोई नई कहानी बुन रहा है। कैसी कहानी...? तेल की मजबूरी, तो कहीं न कहीं पाकिस्तान के साथ नर्मी बरतने की बात पर समझौता या फिर कुछ और ही चल रहा है उस दिमाग के भीतर? वोट देकर अफसोस करने वालों को कल एक बार फिर अपने अफसोस पर भी अफसोस होगा। युद्ध के नियमों से अपरिचित लोग भी अभी नही जानते कि युद्ध का हर नियम जायज़ ठहराने के पीछे भी कई राज़ छुपे थे। आप सीधा हमला भी करते थे, भूखा रख कर फिर भोजन का लालच दिखा कर काबू कर लेते थे, आप कभी यूं भी करते थे कि जो सहूलियत आपको आपका शासक नही दे सका उन्हीं चीज़ों को देने का वायदा करके भी आप किलों के बन्द दरवाज़े खुलवा कर जीत हासिल कर लेते थे। हर हाल में जनता ही होती थी जो सामने वाले का शिकार बनती थी, कभी हिन्दू मुग़लों का और कभी मुग़ल हिन्दुओं का! ऐसे ही किसी अदृश्य युद्ध का हम और आप शिकार बने हुए हैं, समय लगेगा किन्तु नतीजे इस बार शत प्रतिशत होंगे और कोई भी घाटे में नही रहेगा, न आप न हम।
भेद भाव और नाइंसाफी का पन्ना पलटने पर एक और उदाहरण दिखेगा, भगवद् गीता ! जिसे अभी तक भारतीय पाठ्यक्रम का हिस्सा नही बनाया गया जबकि गीता किसी एक धर्म के विषय में न होकर केवल जीवन जीने का तरीका सिखाता है। प्रश्न ये नही कि ये क्यूं नही किया जा रहा ? प्रश्न ये है कि ये अभी तक क्यूं नही किया गया ? क्या दत्तात्रेय गोत्र में गीता पाठ वर्जित था ? या फिर अंग्रेज़ी स्कूल की पढ़ाई के कारण गांधी परिवार के ब्राह्यणों को कभी पूजा पाठ का समय ही नही मिला। कारण जो रहा हो कुल मिला कर मुस्लिम समाज के विषय में भी इन लोगों के विचारों को बहुत स्वीकार योग्य नही कहा जा सकता। वो जो हमेशा से इन्हें अपाहिज रख कर इनके वोटों पर लेटना चाहते थे उन्हें ये आज भी अपना सरमाया समझते हैं। मोदी की खिलाफत को इस्लाम और हिन्दुओं के अपमान को सुन्नत मानने की भूल करते हैं। इन्हें बदलना नामुमकिन है क्यूंकि मदरसे के भीतर का कारोबार बीते दशकों में कभी बदला ही नही गया। एक बार जड़ से बदलाव का प्रयास बेहद ज़रूरी है और इसी को करने में मोदी को एक प्रकार से अपने अस्तित्व के खिलाफ कदम उठाना पड़ रहा है। सभी धीरे धीरे उनके शासन के रवैये पर उंगली उठाने लगे हैं ये घातक है पर आने वाले थोड़े समय में जब इसके नतीजे सामने आएंगे तो नज़रिया फिर बदलेगा क्यूंकि नज़र तो होती ही बदलने के लिए है।

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