जब आपका कोई शत्रु न हो अथवा आप किसी का विरोध न कर रहे हों अथवा जबरन किसी के खिलाफ होकर उसका अपमान करने की योजना न बना रहे हों तो अचानक से लिखने के विषय ख़त्म होने लगते हैं। फिर जान समझ कर किसी न किसी के लिए मन में क्रोध जगाना पड़ता है, फिर वो क्रोध राजनीति से जुड़ा हो, फिल्म जगत से, खेल जगत से अथवा किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति पर हो बस क्रोध आना भर चाहिए कि अचानक आपको निन्दा करने के नाम पर पचास पन्नों का मसाला मिल जाता है, जहां प्रशंसा के नाम पर आप एक शब्द नही खोज पा रहे थे। कभी सोचा आपने कि ऐसा क्यूं? सोचिएगा तो अपने कारण मुझसे बांटिएगा ज़रूर... अच्छा कहने, प्रशंसा करने लिखने में हमारी जीभ को काफी लचीला होना पड़ता है वहीं बुराई या निन्दा करने बोलने या लिखने में दिमाग को अधिक मशक्कत नही करनी पड़ती। अब आप इसे स्वीकार कीजिए या नही किन्तु सत्य तो कटु ही होता है, आपको इसका स्वाद भाए या न भाए। अब मेरे ही इस लेख को ले लीजिए इतनी देर से आपकी निन्दा किए जा रही हूं और आप इसे पढ़ कर मेरी हां में हां मिलाएंगे साथ ही टिप्पणियां भी करेंगे क्यूंकि आपको लगेगा यहां आपकी नही किसी और की बात हो रही है। अब स्वयं
क्या आपने कभी सोचा कि बच्चों के लिए कलम से इतना लिखना और लगातार पढ़ना हमसे अधिक सहज क्यूं होता है? हमारे लिए लिखना कभी कभी मुश्किल, कभी सिरदर्द तो कभी एकदम बोझ बन जाता है। एक उम्र के बाद हम सोच ज़्यादा सकते हैं और लिखना कम हो जाता है, यद्यपि हम ये भी आशा रखते हैं कि हमारी सोच समाज के सभी वर्गों अथवा वर्ग विशेष तक पहुंचे तथापि हम इसे पहुंचाने का सहज सरल माध्यम भी खोजना चाहते है किन्तु इतनी इच्छाओं के बाद भी कलम उठाकर कागज़ पर चलाना एक दुष्कर कार्य हो जाता है। यह एक उलझी मानसिकता, आलस, कामचोरी अथवा थकान भी हो सकती है लेकिन इसका प्रमुख कारण अधिकतर आत्मविश्वास की कमी ही कहलाती है। दरअसल हम जो सोचते हैं उस सोच को हम कोई स्तर नही दे पाते, इसका कारण स्पष्टरूप से यही है कि हम स्वयं का सम्मान नही करते। घर से निकलकर समाज में प्रवेश करने के बाद से आस पास के लोग जो भी राय हमारे या हमारे चरित्र के विषय में गढ़ते हैं हम उसी के अनुसार स्वयं को ढालने लगते हैं, हम भूल जाते हैं कि हमारे माता पिता ने हमें किस प्रकार पाल पोस कर बड़ा किया, कैसे संस्कार दिए अथवा वो हमारे बारे में क्या सोचते थे। हमें जब कोई राह